Thursday, June 2, 2011

Nahjul Balagha Hindi Aqwal 260-285 नहजुल बलाग़ा हिन्दी अक़वाल 260-285

260- जब आपको इत्तेला दी गई के माविया के असहाब ने अम्बार पर हमला कर दिया है तो आप ब-नफ़्से नफ़ीस निकल कर नख़ीला तक तशरीफ़ ले गए और कुछ लोग भी आपके साथ पहुंच गए और कहने लगे के आप तशरीफ़ रखें। हम लोग उन दुश्मनों के लिये काफ़ी हैं तो आपने फ़रमाया के तुम लोग अपने लिये काफ़ी नहीं हो दुश्मन के लिये क्या काफ़ी हो सकते हो? तुमसे पहले रिआया हुक्काम के ज़ुल्म से फ़रियादी थी और आज मैं रिआया के ज़ुल्म से फ़रयाद कर रहा हूँ, जैसे के यही लोग क़ाएद हैं और मैं रइयत हूँ। मैं हलक़ाबगोश हूँ और यह फ़रमान रवा।

जिस वक़्त आपने यह कलाम इरशाद फ़रमाया जिसका एक हिस्सा ख़ुत्बे के ज़ैल में नक़्ल किया जा चुका है तो आपके असहाब में से दो अफ़राद आगे बढ़े जिनमें से एक ने कहा के मैं अपना और अपने भाई का ज़िम्मेदार हूँ। आप हुक्म दें हम तामील के लिये तैयार हैं, आपने फ़रमाया के मैं जो कुछ चाहता हूँ तुम्हारा उससे क्या ताल्लुक़ है।

261-कहा जाता है के हारिस बिन जोत ने आपके पास आकर यह कहा के क्या आपका यह ख़्याल है के मैं असहाबे जमल को गुमराह मान लूँगा? तो आपने फ़रमाया के हारिस! तुमने अपने नीचे की तरफ़ देखा है इसलिये हैरान हो गए हो, तुम हक़ ही को नहीं पहचानते हो तो क्या जानो के हक़दार कौन है और बातिल ही को नहीं जानते हो तो क्या जानो के बातिल परस्त कौन है? हारिस ने कहा के मैं सईद बिन मालिक और अब्दुल्लाह बिन उमर के साथ गोशानशीन हो जाऊंगा तो आपने फ़रमाया के सईद और अब्दुल्लाह बिन उमर ने हक़ की मदद की है और न बातिल को नज़रअन्दाज़ किया है (न इधर के हुए न उधर के हुए)

(((यह बात उस शख़्स से कही जाती है जिसकी निगाह इन्तेहाई महदूद होती है और अपने ज़ेरे क़दम अश्याअ से ज़्यादा देखने की सलाहियत नहीं रखता है वरना इन्सान की निगाह बलन्द हो जाए तो बहुत से हक़ाएक़ का इदराक कर सकती है, हारिस का सबसे बड़ा ऐब यह है के उसने सिर्फ़ उम्मुल मोमेनीन की ज़ौजियत पर निगाह की है और तलहा व ज़ुबैर की सहाबियत पर, और ऐसी महदूद निगाह रखने वाला इन्सान हक़ाएक़ का इदराक नहीं कर सकता है। हक़ाएक़ का मेयार क़ुरान व सुन्नत है जिसमें ज़ौजा को घर में बैठने की तलक़ीन की गई है और इन्सान को बैअत शिकनी से मना किया गया है। हक़ाएक़ का मेयार किसी की ज़ौजियत या सहाबियत नहीं है, वरना ज़ौजाए नूह (अ0) और ज़ौजाए लूत (अ0) को क़ाबिले मज़म्मत न क़रार दिया जाता और असहाबे मूसा की सरीही मज़म्मत न की जाती।’’)))

262- बादशाह का मसाहेब शीर का सवार होता है के लोग उसके हालात पर रश्क करते हैं और वह ख़ुद अपनी हालत को बेहतर पहचानता है।

(((हक़ीक़ते अम्र यह है के मसाहेबत की ज़िन्दगी देखने में इन्तेहाई हसीन दिखाई देती है के सारा अम्र व नहीं का निज़ाम बज़ाहिर मसाहेब के हाथ में होता है लेकिन उसकी वाक़ई हैसियत क्या होती है यह उसी का दिल जानता है के न साहेबे इक़्तेदार के मिज़ाज का कोई भरोसा होता है और न मसाहेबत के ओहदए इक़्तेदार का। रब्बे करीम हर इन्सान को ऐसी बलाओं से महफ़ूज़ रखे जिनका ज़ाहिर इन्तेहाई हसीन होता है और वाक़ेई इन्तेहाई संगीन और ख़तरनाक।)))

263- दूसरों के पसमान्दगान से अच्छा बरताव करूं ताके लोग तुम्हारे पसमान्दगान के साथ भी अच्छा बरताव करें।

264- होकमा का कलाम दुरूस्त होता है तो दवा बन जाता है और ग़लत होता है तो बीमारी बन जाता है।

265- एक शख़्स ने आपके मुतालबा किया के ईमान की तारीफ़ फ़रमाएं, तो फ़रमाया के कल आना तो मैं मजमए आम में बयान करूंगा ताके तुम भूल जाओ तो दूसरे लोग महफ़ूज़ रख सकें इसलिये के कलाम भड़के हुए शिकार के मानिन्द होता है के एक पकड़ लेता है और एक के हाथ से निकल जाता है
(मुफ़स्सल जवाब इससे पहले ईमान के शोबों के ज़ैल में नक़्ल किया जा चुका है।)

266-फ़रज़न्दे आदम! उस दिन का ग़म जो अभी नहीं आया है उस दिन पर मत डालो जो आ चुका है के अगर वह तुम्हारी उम्र में शामिल होगा तो उसका रिज़्क़ भी उसके साथ ही आएगा।

267- अपने दोस्त से एक महदूद हद तक दोस्ती करो, कहीं ऐसा न हो के एक दिन दुश्मन हो जाए और दुश्मन से भी एक हद तक दुश्मनी करो शायद एक दिन दोस्त बन जाए (तो शर्मिन्दगी न हो)।

(((यह एक इन्तेहाई अज़ीम मुआशेरती नुक्ता है जिसका अन्दाज़ा हर उस इन्सान को है जिसने मुआशरे में आंख खोल कर ज़िन्दगी गुज़ारी है और अन्धों जैसी ज़िन्दगी नहीं गुज़ारी है। इस दुनिया के सर्द व गर्म का तक़ाज़ा यही है के यहाँ अफ़राद से मिलना भी पड़ता है और कभी अलग भी होना पड़ता है लेहाज़ा तक़ाज़ाए अक़्लमन्दी यही है के ज़िन्दगी में ऐसा एतदाल रखे के अगर अलग होना पड़े तो सारे इसरार दूसरे के क़ब्ज़े में न हों के उसका ग़ुलाम बन कर रह जाए और अगर मिलना पड़े तो ऐसे हालात न हों के शर्मिन्दगी के अलावा और कुछ हाथ न आए।)))

268- दुनिया में दो तरह के अमल करने वाले पाए जाते हैं, एक वह है जो दुनिया ही के लिये काम करता है और उसे दुनिया ने आख़ेरत से ग़ाफ़िल बना दिया है। वह अपने बाद वालों के फ़क्ऱ से ख़ौफ़ज़दा रहता है और अपने बारे में बिल्कुल मुतमईन रहता है, नतीजा यह होता है के सारी ज़िन्दगी दूसरों के फ़ायदे के लिये फ़ना कर देता है और एक शख़्स वह होता है जो दुनिया में उसके बाद के लिये अमल करता है और उसे दुनिया बग़ैर अमल के मिल जाती है। वह दुनिया व आख़ेरत दोनों को पा लेता है और दोनों घरों का मालिक हो जाता है। ख़ुदा की बारगाह में सुरख़ुरू हो जाता है और किसी भी हाजत का सवाल करता है तो परवरदिगार उसे पूरा कर देता है।

(((दौरे क़दीम में इसका नाम दूर अन्देशी रखा जाता था जहां इन्सान सुबह व शाम मेहनत करने के बावजूद न माल अपनी दुनिया पर सर्फ़ करता था और न आख़ेरत पर। बल्कि अपने वारिसों के लिये ज़ख़ीरा बनाकर चला जाता था, इस ग़रीब को यह एहसास भी नहीं था के जब उसे ख़ुद अपनी आक़ेबत बनाने की फ़िक्र नहीं है तो वोरसा को उसकी आक़ेबत से क्या दिलचस्पी हो सकती है, वह तो एक माले ग़नीमत के मालिक हो गए हैं और जिस तरह चाहेंगे उसी तरह सर्फ़ करेंगे।)))

269- रिवायत में वारिद हुआ है के अम्र बिन अलख़ताब के सामने एक दौरे हुकूमत में ख़ानाए काबा के ज़ेवरात की कसरत का ज़िक्र किया गया और एक क़ौम ने यह तक़ाज़ा किया के अगर आप उन ज़ेवरात को मुसलमानों के लश्कर पर सर्फ़ कर दे ंतो बहुत बड़ा अज्र व सवाब मिलेगा, काबे को उन ज़ेवरात की क्या ज़रूरत है? तो उन्होंने इस राय को पसन्द करते हुए हज़रत अमीर (अ0) से दरयाफ़्त कर लिया। आपने फ़रमाया के यह क़ुरान पैग़म्बरे इस्लाम पर नाज़िल हुा है और आपके दौर में अमवाल की चार क़िस्में थीं। एक मुसलमान का ज़ाती माल था जिसे हस्बे फ़राएज़ वोरसा में तक़सीम कर दिया करते थे। एक बैतुलमाल का माल था जिसे मुस्तहक़ीन में तक़सीम करते थे। एक ख़ुम्स था जिसे उसके हक़दारों के हवाले कर देते थे और कुछ सदक़ात थे जिन्हें के महल पर सर्फ़ किया करते थे। काबे के ज़ेवरात उस वक़्त भी मौजूद थे और परवरदिगार ने उन्हें इसी हालत में छोड़ रखा था न रसूले न रसूले अकरम (स0) उन्हें भूले थे और न उनका वजूद आपसे पोशीदा था, लेहाज़ा आप उन्हें इसी हालत पर रहने दें जिस हालत पर ख़ुदा और रसूल ने रखा है, यह सुनना था के उमर ने कहा आज अगर आप न होते तो मैं रूसवा हो गया होता और यह कहकर ज़ेवरात को उनकी जगह छोड़ दिया।

270-कहा जाता है के आपके सामने दो आदमियों को पेश किया गया जिन्होंने बैतुलमाल से माल चुराया था। एक उनमें से ग़ुलाम और बैतुलमाल की मिल्कियत था और दूसरा लोगों में से किसी की मिल्कियत था। आपने फ़रमाया के जो बैतुलमाल की मिल्कियत है उस पर कोई हद नहीं है के माले ख़ुदा के एक हिस्से ने दूसरे हिस्से को खा लिया है लेकिन दूसरे पर शदीद हद जारी की जाएगी जिसके बाद उसके हाथ काट दिये गए।

271-अगर इन फिसलने वाली जगहों पर मेरे क़दम जम गए तो मैं बहुत सी चीज़ों को बदल दूंगा (जिन्हें पेशरौ ख़ोलफ़ा ने ईजाद किया है और जिनका सुन्नते पैग़म्बर (स0) से कोई ताल्लुक़ नहीं है।)

272- यह बात यक़ीन के साथ जान लो के परवरदिगार ने किसी बन्दे के लिये इससे ज़्यादा नहीं क़रार दिया है जितना किताबे हकीम में बयान कर दिया गया है चाहे उसकी तदबीर कितनी ही अज़ीम, उसकी जुस्तजु कितनी ही शदीद और उसकी तरकीबें कितनी ही ताक़तवर क्यों न हों और इसी तरह वह बन्दे तक उसका मक़सूम पहुंचने की राह में कभी हाएल नहीं होता है चाहे वह कितना ही कमज़ोर और बेचारा क्यों न हो। जो इस हक़ीक़त को जानता है और उसके मुताबिक़ अमल करता है वही सबसे ज़्यादा राहत और फ़ायदे में रहता है और जो इस हक़ीक़त को नज़रअन्दाज़ कर देता है और इसमें शक करता है वही सबसे ज़्यादा नुक़सान में मुब्तिला होता है, कितने ही अफ़राद हैं जिन्हें नेमतें दी जाती हैं और उन्हीं के ज़रिये अज़ाब की लपेट में ले लिया जाता है और कितने ही अफ़राद हैं जो मुब्तिलाए मुसलबत होते हैं लेकिन यही इब्तिला उनके हक़ में बाएसे बरकत बन जाता है। लेहाज़ा ऐ फ़ायदे के तलबगारों! शुक्र में इज़ाफ़ा करो और अपनी जल्दी कम कर दो और अपने रिज़्क़ की हदों पर ठहर जाओ।

(((यह सूरतेहाल बज़ाहिर ख़ानए काबा के साथ मख़सूस नहीं है बल्कि तमाम मुक़द्दस मुक़ामात का यही हाल है के उनके ज़ीनत व आराइश के असबाब अगर ज़रूरी है, लेकिन अगर उनकी कोई अफ़ादियत नहीं है तो उनके बारे में ज़िम्मेदार इन शरीअत से रूजू करके सही मसरफ़ में लगा देना चाहिये। बक़ौल शख़्से बिजली के दौर में मोमबत्ती और ख़ुशबू के दौर में अगरबत्ती के तहफ़्फ़ुज़ की कोई ज़रूरत नहीं है, यही पैसा इसी मुक़द्दस मक़ाम के दीगर ज़ुरूरियात पर सर्फ़ किया जा सकता है।)))

273- ख़बरदार अपने इल्म को जेहल न बनाओ और अपने यक़ीन को ‘ाक न क़रार दो। जब जान लो तो अमल करो और जब यक़ीन हो जाए तो क़दम आगे बढ़ाओ।

(((इमाम अलैहिस्सलाम की नज़र में इल्म और यक़ीन के एक मख़सूस मानी हैं जिनका इज़हार इन्सान के किरदार से होता है। आपकी निगाह में इल्म सिर्फ़ जानने का नाम नहीं है और न यक़ीन सिर्फ़ इत्मीनाने क़ल्ब का नाम है बल्कि दोनों के वजूद का एक फ़ितरी तक़ाज़ा है जिससे उनकी वाक़ईयत और असालत का अन्दाज़ा हाोता है के इन्सान वाक़ेअन साहेबे इल्म है तो बाअमल भी होगा और वाक़ेअन साहेबे यक़ीन है तो क़दम भी आगे बढ़ाएगा। ऐसा न हो तो इल्म जेहल कहे जाने के क़ाबिल है और यक़ीन ‘ाक से बालातर कोई ‘ौ नहीं है।)))

274- लालच जहां वारिद कर देती है वहां से निकलने नहीं देती है और यह एक ऐसी ज़मानतदार है जो वफ़ादार नहीं है के कभी कभी तो पानी पीने वाले को सेराबी से पहले ही उच्छू लग जाता है और जिस क़द्र किसी मरग़ूब की क़द्र व मन्ज़िलत ज़्यादा होती है उसके खो जाने का रन्ज ज़्यादा होता है। आरज़ूएं दीदाए बसीरत को अन्धा बना देती हैं और जो कुछ नसीब में होता है वह बग़ैर कोशिश के भी मिल जाता है।

(((लालच इन्सान को हज़ारों चीज़ों का यक़ीन दिला देती है और उससे वादा भी कर लेती है लेकिन वक़्त पर वफ़ा नहीं करती है और बसावक़ात ऐसा होता है के सेराब होने से पहले ही उच्छू लग जाता है और सेराब होने की नौबत ही नहीं आती है। लेहाज़ा तक़ाज़ाए अक़्ल व मवानिश यही है के इन्सान लालच से इज्तेनाब करे और बक़द्रे ज़रूरत पर इक्तिफ़ा करे जो बहरहाल उसे हासिल होने वाला है।)))

275- ख़ुदाया मैं इस बात से पनाह चाहता हूँ के लोगों की ज़ाहेरी निगाह में मेरा ज़ाहिर हसीन हो और जो बातिन तेरे लिये छिपाए हुए हूँ वह क़बीह हो, मैं लोगों के दिखावे के लिये उन चीज़ों की निगेहदाश्त करूं जिन पर तू इत्तेलाअ रखता है। के लोगों पर हुस्ने ज़ाहिर का मुज़ाहेरा करूं और तेरी बारगाह में बदतरीन अमल के साथ हाज़ेरी दूँ। तेरे बन्दों से क़ुरबत इख़्तेयार करूं और तेरी मर्ज़ी से दूर हो जाऊं।
(((आम तौर से लोगों का हाल यह होता है के अवामुन्नास के सामने आने के लिये अपने ज़ाहिर को पाक व पाकीज़ा और हसीन व जीमल बना लेते हैं और यह ख़याल ही नहीं रह जाता है के एक दिन उसका भी सामना करना है जो ज़ाहिर को नहीं देखता है बल्कि बातिन पर निगाह रखता है और इसरार का भी हिसाब करने वाला है। मौलाए कायनात (अ0) ने आलमे इन्सानियत को इसी कमज़ोरी की तरफ़ मुतवज्जो करने के लिये इस दुआ का लहला इख़्तेयार किया है जहां दूसरों पर बराहे रास्त तन्क़ीद भी न हो और अपना पैग़ाम भी तमाम अफ़राद तक पहुंच जाए। ‘ाायद इन्सानों को यह एहसास पैदा हो जाए के अवामुन्नास का सामना करने से ज़्यादा अहमियत मालिक के सामने जाने की है और इसके लिये बातिन का पाक व साफ़ रखना बेहद ज़रूरी है।)))
276- उस ज़ात की क़सम जिसकी बदौलत हमनंे ‘ाबे तारीक के उस बाक़ी हिस्से को गुज़ार दिया है जिसके छंटते ही रोज़े दरख़्शां ज़ाहिर होगा ऐसा और ऐसा नहीं हुआ है।
277- थोड़ा अमल जिसे पाबन्दी से अन्जाम दिया जाए उस कसीर अमल से बेहतर है जिससे आदमी उकता जाए।
278- जब नवाफ़िल फ़राएज़ को नुक़सान पहुंचाने लगें तो उन्हें छोड़ दो।
((( तक़द्दुस मआब हज़रात के लिये यह बेहतरीन नुसख़ए हिदायत है जो इज्तेमाअ और अवामी फ़राएज़ से ग़ाफ़िल हांेकर मुस्तहबात पर जान दिये पड़े रहते हैं और अपनी ज़िम्मेदारियों का एहसास नहीं करते हैं और इसी तरह ये उन साहेबाने ईमान के लिये सामाने तम्बीह है जो मुस्तहबात पर इतना वक़्त और सरमाया सर्फ़ कर देते हैं के वाजेबात के लिये न वक़्त बचता है और न सरमाया। जबके क़ानूनी एतबार से ऐसे मुस्तहबाात की कोई हैसियत नहीं है जिनसे वाजेबात मुतास्सिर हो जाएं और इन्सान फ़राएजज़ की अदाएगी में कोताही का शिकार हो जाए।))))
279-जो दौरे सफ़र को याद रखता है वह तैयारी भी करता है।
280- आंखों का देखना हक़ीक़त में देखना ‘ाुमार नहीं होता है के कभी कभी आंखें अपने अश्ख़ास को धोका दे देती हैं लेकिन अक़्ल नसीहत हासिल करने वाले को फ़रेब नहीं देती है।
(((इन्सानी इल्म के तीन वसाएल हैं एक उसका ज़ाहेरी एहसास व इदराक है और एक उसकी अक़्ल है जिस पर तमाम ओक़लाए बशर का इत्तेफ़ाक़ है और तीसरा रास्ता वहीए इलाही है जिस पर साहेबाने ईमान का ईमान है और बेईमान उस वसीले इदराक से महरूम हैं। इन तीनों में अगरचे वही के बारे में ख़ता का कोई इमकान नहीं है और इस एतबार से इसका मरतबा सबसे अफ़ज़ल है लेकिन ख़ुद ववही का इदराक भी अक़्ल के बग़ैर मुमकिन नहीं है और इसस एतबार से अक़्ल का मरतबा एक बुनियादी हैसियत रखता है और यही वजह है के कुतुब अहादीस में किताबुल अक़्ल को सबसे पहले क़रार दिया गया है और इस तरह उसकी बुनियादे हैसियत का ऐलान किया गया है।)))
281- तुम्हारे और नसीहत के दरम्यान ग़फ़लत का एक परदा हाएल रहता है।
282-तुम्हारे जाहिलों को दौलते फ़रावां दे दी जाती है और आलिम को सिर्फ़ मुस्तक़बिल की उम्मीद दिलाई जाती है।
283- इल्म हमेशा बहाना बाज़ों के उज़्र को ख़त्म कर देता है।
(((अगर इन्सान वाक़ेअन आलिम है तो इल्म का तक़ाज़ा यह है के उसके मुताबिक़ अमल करे और किसी तरह की बहानाबाज़ी से काम न ले जिस तरह के दरबारी और सियासी ओलमा दीदा व दानिस्ता हक़ाएक़ से इन्हेराफ़ करते हैं और दुनियावी मफ़ादात की ख़ातिर अपने इल्म का ज़बीहा कर देते हैं, ऐसे लोग क़ातिल और रहज़न कहे जाने के क़ाबिल हैं, आलिम और फ़ाज़िल कहे जाने के लाएक़ नहीं है।)))
284- जिसकी मौत जल्दी आ जाती है वह मोहलत का मुतालबा करता है और जिसे मोहलत मिल जाती है वह टाल-मटोल करता है।
285- जब भी लोग किसी चीज़ पर वाह-वाह करते हैं तो ज़माना उसके वास्ते एक बुरा दिन छुपाकर रखता है।

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