Sunday, June 5, 2011

Nahjul Balagha Hindi Aqwal 356-403 नहजुल बलाग़ा हिन्दी अक़वाल 356-403

356- एक जमाअत को किसी मरने वाले की ताज़ियत पेश करते हुए फ़रमाया - यह बात तुम्हारे यहाँ कोई नई नहीं है और न तुम्हीं पर इसकी इन्तेहा है। तुम्हारा यह साथी सरगर्मे सफ़र रहा करता था तो समझो के यह भी एक सफ़र है। इसके बाद या वह तुम्हारे पास वारिद होगा या तुम उसके पास वारिद होगे।

357- लोगों! अल्लाह नेमत के मौक़े पर भी तुम्हें वैसे ही ख़ौफ़ज़दा देखे जिस तरह अज़ाब के मामले में हरासाँ देखता है के जिस ‘ाख़्स को फ़राख़दस्ती हासिल हो जाए और वह उसे अज़ाब की लपेट न समझे तो उसने ख़ौफ़नाक चीज़ से भी अपने को मुतमईन समझ लिया है और जो तंगदस्ती में मुब्तिला हो जाए और उसे इम्तेहान न समझे उसने इस सवाब को भी ज़ाया कर दिया जिसकी उम्मीद की जाती है।
((( मक़सद यह है के ज़िन्दगानी के दोनों तरह के हालात में दोनों तरह के एहतेमालात पाए जाते हैं। राहत व आराम में इमकाने फ़ज़्ल व करम भी है और एहतेमाले मोहलत व इतमामे हुज्जत भी है और इसी तरह मुसीबत और परेशानी के माहौल में एहतेमाल एताब व अक़ाब भी है और एहतेमाल इम्तेहान व इख़्तेबार भी है लेहाज़ा इन्सान का फ़र्ज़ है के राहतों के माहौल में इस ख़तरे से महफ़ूज़ हो जाए के इस तरह भी क़ौमों को अज़ाब की लपेट में ले लिया जाता है और परेशानियों के हालात में इस रूख़ से ग़ाफ़िल न हो जाए के यह इम्तेहान भी हो सकता है और इसमें सब्र व तहम्मुल का मुज़ाहेरा करके अज्र व सवाब भी हासिल किया जा सकता है। )))
358- ऐ हिर्स व तमअ के असीरों! अब बाज़ आ जाओ के दुनिया पर टूट पड़ने वालों को हवादिसे ज़माना के दांत पीसने के अलावा कोई ख़ौफ़ज़दा नहीं कर सकता है।
ऐ लोगों! अपने नफ़्स की इस्लाह की ज़िम्मेदारी ख़ुद सम्भाल लो और अपनी आदतों के तक़ाज़ों से मुंह मोड़ लो।
(((मक़सद यह है के ख़्वाहिशात के असीर न बनो और दुनिया का एतबार न करो। अन्जामकार की ज़हमतों से होशियार रहो और अपने नफ़्स को अपने क़ाबू में रखो ताके बेजा रुसूम और महमिल आदात का इत्तेबाअ न करो)))
359- किसी की बात के ग़लत मानी न लो जब तक सही मानी का इमकान मौजूद है।
((( काश हर ‘ाख़्स इस तालीम को इख़्तेयार कर लेता तो समाज के बेशुमार मफ़ासिद से निजात मिल जाती और दुनिया में फ़ित्ना व फ़साद के अकसर रास्ते बन्द हो जाते मगर अफ़सोस के ऐसा नहीं होता है और हर ‘ाख़्स दूसरे के बयान में ग़लत पहलू पहले तलाश करता है और सही रूख़ के बारे में बाद में सोचता है)))
360- अगर परवरदिगार की बारगाह में तुम्हारी कोई हाजत हो तो उसकी तलब का आग़ाज़ रसूले अकरम (स0) पर सलवात से करो और उसके बाद अपनी हाजत तलब करो के परवरदिगार इस बात से बालातर है के उससे दो बातों का सवाल किया जाए और वह एक को पूरा कर दे और एक को नज़रअन्दाज़ कर दे।
(((यह सही है के रसूले अकरम (स0) हमारी सलवात और दुआए रहमत के मोहताज नहीं हैं लेकिन इसके यह मानी हरगिज़ नहीं है के हम अपने अदाए ‘ाुक्र से ग़ाफ़िल हो जाएं और उनकी तरफ़ से मिलने वाली नेमते हिदायत का किसी ‘ाक्ल में कोई बदला न दें वरना परवरदिगार भी हमारी इबादतों का मोहताज नहीं है तो हर इन्सान इबादतों को नज़़र अन्दाज़ करके चैन से सो जाए। सलवात का सबसे बड़ा फ़ायदा यह होता है के इन्सान परवरदिगार की नज़्रे इनायत का हक़दार हो जाता है और इस तरह इसकी दुआएं क़ाबिले क़ुबूल हो जाती हैं।)))
361- जो अपनी आबरू को बचाना चाहता है उसे चाहिये के लड़ाई झगड़े से परहेज़ करे।
362- किसी बात के इमकान से पहले जल्दी करना और वक़्त आ जाने पर देर करना दोनों ही हिमाक़त है।
363- जो बात होने वाली नहीं है उसके बारे में सवाल मत करो के जो हो गया है वही तुम्हारे लिये काफ़ी है।
364-फ़िक्र एक ‘ाफ़्फ़ाफ़ आईना है और इबरत हासिल करना एक इन्तेहाई मुख़लिस मुतनब्बेह करने वाला है। तुम्हारे नफ़्स के अदब के लिये इतना ही काफ़ी है के जिस चीज़ को दूसरों के लिये नापसन्द करते हो उससे ख़ुद भी परहेज़ करो।
(((इसमें कोई ‘ाक नहीं हे के फ़िक्र एक ‘ाफ़्फ़ाफ़ आईना है जिसमें ब-आसानी मजहूलात का चेहरा देख लिया जाता है और अहले मन्तक़ ने इसकी यही तारीफ़ की है के मालूमात को इस तरह मुरत्तब किया जाए के इससे मजहूलात का इल्म हासिल हो जाए, लेकिन सिर्फ़ मुस्तक़बिल का चेहरा देख लेना ही कोई हुनर नहीं है। अस्ल हुनर और काम इससे इबरत हासिल करना है के इन्सान के हक़ में इबरत से ज़्यादा मुख़लिस नसीहत करने वाला कोई नहीं है और यही इबरत है जो उसे हर बुराई और मुसीबत से बचा सकती है वरना इसके अलावा कोई यह कारे ख़ैर अन्जाम देने वाला नहीं है।)))
365-इल्म का मुक़द्दर अमल से जुड़ा है और जो वाक़ेई साहेबे इल्म होता है वह अमल भी करता है। याद रखो के इल्म अमल के लिये आवाज़ देता है और इन्सान सुन लेता है तो ख़ैर वरना ख़ुद भी रूख़सत हो जाता है।
(((बिला ‘ाक व ‘ाुबह इल्म एक कमाल है और मजहूलात का हासिल कर लेना एक हुनर है लेकिन सवाल यह है के इसे ब-कमाल और साहबे हुनर किस तरह कहा जा सकता है जो यह तो दरयाफ़्त कर ले के फ़लाँ चीज़ मंंे ज़हर है मगर इससे इज्तेनाब न करे। ऐसे ‘ाख़्स काो तो मज़ीद अहमक़ और नालाएक़ तसव्वुर किया जाता है।
इल्म का कमाल यही है के अफ़सान इसके मुताबिक़ अमल करे ताके साहेबे इल्म और साहेबे कमाल कहे जाने का हक़दार हो जाए वरना इल्म एक वबाल हो जाएगा और अपनी नाक़द्री से नाराज़ होकर रूख़सत भी हो जाएगा। सिर्फ़ नामे इल्म बाक़ी रह जाएगा और हक़ीक़ते इल्म ख़त्म हो जाएगी।)))
366- अय्योहन्नास! दुनिया का सरमाया एक सड़ा भूसा है जिससे वबा फैलने वाली है लेहाज़ा इसकी चरागाह से होशियार रहो। इस दुनिया से चल चलाव सुकून के साथ रहने से ज़्यादा फ़ायदेमन्द है और यहाँ का बक़द्रे ज़रूरत सामान सरवत से ज़्यादा बरकत वाला है। यहाँ के दौलतमन्द के बारे में एक दिन एहतियाज लिख दी गई है और इससे बे नियाज़ रहने वाले को राहत का सहारा दे दिया जाता है। जिसे इसकी ज़ीनत पसन्द आ गई उसकी आंखों को अन्जामकारिया अन्धा कर देती है और जिसने इससे ‘ाग़फ़ को ‘ाोआर बना लिया उसके ज़मीर को रन्ज व अन्दोह से भर देती है और यह फ़िक्रें इसके नुक़्तए क़ल्ब के गिर्द चक्कर लगाती रहती हैं बाज़ इसे मशग़ूल बना लेती हैं और बाज़ महज़ून बना देती हैं और यह सिलसिला यूँ ही क़ायम रहता है यहाँ तक के इसका गला घोंट दिया जाए और उसे फ़िज़ा (क़ब्र) में डाल दिया जाए जहाँ दिल की दोनों रगें कट जाएँ। ख़ुदा के लिये इसका फ़ना कर देना भी आसान है और भाइयों के लिये इसे क़ब्र में डाल देना भी मुश्किल नहीं है।
मोमिन वही है जो दुनिया की तरफ़ इबरत की निगाह से देखता है और पेट की ज़रूरत भर सामान पर गुज़ारा कर लेता है। इसकी बातों को अदावत व नफ़रत के कानों से सुनता है, के जब किसी के बारे में कहा जाता है के मालदार हो गया है तो फ़ौरन आवाज़ आती है के नादार हो गया है। और जब किसी को बक़ा के तसव्वुर से मसरूर किया जाता है तो फ़ना के ख़याल से रन्जीदा बना दिया जाता है और यह सब उस वक़्त है जब अभी वह दिन नहीं आया है जिस दिन अहले दुनिया मायूसी का शिकार हो जाएंगे।
367- परवरदिगारे आलम ने इताअत पर सवाब और मासियत पर अक़ाब इसीलिये रखा है ताके बन्दों को अपने ग़ज़ब से दूर रख सके और उन्हें घेरकर जन्नतत की तरफ़ ले आए।
368- लोगों पर एक ऐसा दौर भी आने वाला है जब क़ुरान में सिर्फ़ नुक़ूश बाक़ी रह जाएंगे और इस्लाम में सिर्फ़ नाम बाक़ी रह जाएगा। मस्जिदें ततामीरात के एतबार से आबाद होंगी और हिदायत के एतबार से बरबाद होंगी। उसके रहने वाले और आबाद करने वाले सब बदतरीन अहले ज़माना होंगे। उन्हीं से फ़ित्ना बाहर आएगा और उन्हीं की तरफ़ ग़लतियों को पनाह मिलेगी। जो इससे बचकर जाना चाहेगा उसे इसकी तरफ़ पलटा देंगंे और जो दूर रहना चाहेगा उसे हँकाकर ले आएंगे।
परवरदिगार का इरशाद है के मेरी ज़ात की क़सम मैं इन लोगों पर एक ऐसे फ़ित्ने को मुसल्लत कर दूँगा जो साहबे अक़्ल को भी हैरतज़दा बना देगा और यह यक़ीनन होकर रहेगाा। हम उसकी बारगाह में ग़फ़लतों की लग्ज़िशों से पनाह चाहते हैं।
(((शायद के हमारा दौर इस इरशादे गिरामी का बेहतरीन मिस्दाक़ है जहाँ मसाजिद की तामीर भी एक फ़ैशन हो गई है और इसका इज्तेमाअ भी एक फ़ंक्शन होकर रह गया है। रूहे मस्जिद फ़ना हो गई है और मसाजिद से वह काम नहीं लिया जा रहा है जो मौलाए कायनात के दौर में लिया जा रहा था। जहाँ इस्लाम की हर तहरीक का मरकज़ मस्जिद थी और बातिल से हर मुक़ाबले का मन्सूबा मस्जिद में तैयार होता था। लेकिन आज मस्जिदें सिर्फ़ हुकूमतों के लिये दुआए ख़ैर का मरकज़ हैं और उनकी ‘ाख़्िसयतों के प्रोपेगन्डा का बेहतरीन प्लेटफ़ार्म हैं, रब्बे करीम इस सूरतेहाल की इस्स्लाह फ़रमाए।)))
369-कहा जाता है के आप जब भी मिम्बर पर तशरीफ़ ले जाते थे तो ख़ुत्बे से पहले यह कलेमात इरशाद फ़रमाया करते थेः
लोगों! अल्लाह से डरो, उसने किसी को बेकार नहीं पैदा किया है के खेल कूद में लग जाए और न आज़ाद छोड़ दिया है के लग़्िवयतें करने लगे। यह दुनिया जो इन्सान की निगाह में आरास्ता हो गई है यह उस आखि़रत का बदल नहीं बन सकती है जिसे बुरी निगाह ने क़बीह बना दिया है जो फ़रेब ख़ोरदा दुनिया हासिल करने में कामयाब हो जाए वह इसका जैसा नहीं है जो आख़ेरत में अदना हिस्सा भी हासिल कर ले।
370-इस्लाम से बलन्दतर कोई ‘ारफ़ नहीं है और तक़वा से ज़्यादा ब-इज़्ज़त कोई इज़्ज़त नहीं है। परहेज़गारी से बेहतर कोई पनाहगाह नहीं है और तौबा से ज़्यादा कामयाब कोई शिफ़ाअत करने वाला नहीं है।
क़नाअत से ज़्यादा मालदार बनाने वाला कोई ख़ज़ाना नहीं है और रोज़ी पर राज़ी हो जाने से ज़्यादा फ़क्ऱ व फ़ाक़ा को दूर करने वाला कोई माल नहीं है।
जिसने बक़द्रे किफ़ायत सामान पर गुज़ारा कर लिया उसने राहत को हासिल कर लिया और सुकून की मन्ज़िल में घर बना लिया।
ख़्वाहिश रन्ज व तकलीफ़ की कुन्जी और तकलीफ़ व ज़हमत की सवारी है।
हिरस तकब्बुर और हसद गुनाहों में कूद पड़ने के असबाब व मोहर्रकात हैं और ‘ार ततमाम बुराइयों का जामा है।
372- आपने जाबिर बिन अब्दुल्लाह अन्सारी से फ़रमाया के जाबिर दीन व दुनिया का क़याम चार चीज़ों से है - वह आलिम जो अपने इल्म को इस्तेमाल भी करे और वह जाहिल जो इल्म हासिल करने से इन्कार न करे। वह सख़ी जो अपनी नेकियों में बुख़ल न करे। और वह फ़क़ीर जो अपनी आख़ेरत को दुनिया के एवज़ फ़रोख़्त न करे।
लेहाज़ा (याद रखो) अगर आलिम अपने को बरबाद कर देगा तो जाहिल भी उसके हुसूल से अकड़ जाएगा और अगर ग़नी अपनी नेकियों में बुख़ल करेगा तो फ़क़ीर भी आख़ेरत को दुनिया के एवज़ बेचने पर आमादा हो जाएगा।
जाबिर! जिस पर अल्लाह की नेमतें ज़्यादा होती हैं उसकी तरफ़ लोगों की एहतियाज भी ज़्यादा होती है लेहाज़ा जो ‘ाख़्स अपने माल में अल्लाह के फ़राएज़ के साथ क़याम करता है वह उसकी बक़ा व दवाम का सामान फ़राहम कर लेता है और जो उन वाजेबात को अदा नहीं करता है वह उसे ज़वाल व फ़ना के रास्ते पर लगा देता है।
(((इस फ़िक़रे में सलामती और बराअत का मफ़हूम यही है के मुनकेरात को बुरा समझना और उससे राज़ी न होना इन्सान की फ़ितरते सलीम का हिस्सा है जिसका तक़ाज़ा अन्दर से बराबर जारी रहता है लेहाज़ा अगर उसने बेज़ारी का इज़हार कर दिया तो गोया फ़ितरत के सलीम होने का सबूत दे दिया और उस फ़रीज़े से सुबुकदोश हो गया जो फ़ितरते सलीम ने उसके ज़िम्मे आयद किया था वरना अगर ऐसा भी न करता तो उसका मतलब यह था के फ़ितरते सलीम पर ख़ारेजी अनासिर ग़ालिब आ गए हैं और उन्होंने बर अल ज़िम्मा होने से रोक दिया है)))
372-इब्ने जरीर तबरी ने अपनी तारीख़ में अब्दुर्रहमान बिन अबी लैला से नक़्ल किया है जो हज्जाज से मुक़ाबला करने के लिये इब्ने अश्अस से निकला था और लोगों को जेहाद पर आमादा कर रहा था के मैंने हज़रत अली (अ0) (ख़ुदा स्वालेहीन में उनके दरजात को दृ का सवाब इनायत करे) से उस दिन सुना है जब हम लोग ‘ााम वालों से मुक़ाबला कर रहे थे के हज़रत ने फ़रमाायाः
ईमान वालों! जो ‘ाख़्स यह देखे के ज़ुल्म व तअदी पर अमल हो रहा है और बुराइयों की तरफ़ दावत दी जा रही है और अपने दिल से इसका इन्कार कर दे तो गोया महफ़ूज़ रह गया और बरी हो गया, और अगर ज़बान से इन्कार कर दे तो अज्र का हक़दार भी हो गया के यह सिर्फ़ क़ल्बी इन्कार से बेहतर सूरत है और अगर कोई ‘ाख़्स ततलवार के ज़रिये इसकी रोकथाम करे ताके अल्लाह का कलमा बलन्द हो जाए और ज़ालेमीन की बात पस्त हो जाए तो यही वह ‘ाख़्स है जिसने हिदायत के रास्ते को पा लिया है और सीधे रास्ते पर क़ायम हो गया है और उसके दिल में यक़ीन की रोशनी पैदा हो गई है।
372- (इसी मौज़ू से मुताल्लिक़ दूसरे मौक़े पर इरशाद फ़रमाया) बाज़ लोग मुन्किरात का इन्कार दिल, ज़बान और हाथ सबसे करते हैं तो यह ख़ैर के तमाम ‘ाोबों के मालिक हैं और बाज़ लोग सिर्फ़ ज़बान और दिल से इन्काार करते हैं और हाथ से रोक थाम नहीं करते हैं तो उन्होंने नेकी की दो ख़सलतों को हासिल कियाा है और एक ख़सलत को बरबाद कर दिया है और बाज़ लोग सिर्फ़ दिल से इन्कार करते हैं और न हाथ इस्तेमाल करते हैं और न ज़बान तो उन्होंने दो ख़स्लतों को ज़ाया कर दिया है और सिर्फ़ एक को पकड़ लिया है।
और बाज़ वह हैं जो दिल, ज़बान और हाथ से भी बुराइयों का इन्कार नहीं करते हैं ततो यह ज़िन्दों के दरम्यान मुर्दा की हैसियत रखतते हैं और याद रखो के जुमला आमाल ख़ैर मय जेहादे राहे ख़ुदा, अम्रे बिल मारूफ़ और नहीं अनिल मुनकर के मुक़ाबले में वही हैसियत रखते हैं जो गहरे समन्दर में लोआबे दहन के ज़र्रात की हैसियत होती है।
और इन तमाम आमाल से बलन्दतर अमल हाकिम ज़ालिम के सामने कलमए इन्साफ़ का एलान है।
(((तारीख़े इस्लाम में इसकी बेहतरीन मिसाल अब्ने अलसकीत का किरदार है जहाँ उनसे मुतवक्किल ने सरे दरबार यह सवाल कर लिया के तुम्हारी निगाह में मेरे दोनों फ़रज़न्द मोतबर और मोईद बेहतर हैं या अली (अ0) के दोनों फ़रज़न्द हसन (अ0) और हुसैन (अ0)। तो इब्ने अली अलसकीत ने सुलतान ज़ालिम की आंखों में आंखें डालकर फ़रमाया के हसन (अ0) और हुसैन (अ0) का क्या ज़िक्र है, तेरे फ़रज़न्द और तू दोनों मिलकर अली (अ0) के ग़ुलाम क़म्बर की जूतियों के तस्मे के बराबर नहीं हैं।
जिसके बाद मुतवक्किल ने हुक्म दिया के इनकी ज़बान को गुद्दी से खींच लिया जाए और इब्ने अबी अलसकीत ने निहायत दरजए सुकूने क़ल्ब के साथ इस क़ुरबानी को पेश कर दिया और अपने पेशरौ मीसमे तम्मार, हजर बिन अदमी, अम्रो बिन अलहमक़, अबूज़र, अम्मार यासिर और मुख़्तार से मुलहक़ हो गए।)))
374-अबू हनीफ़ा से नक़्ल किया गया है के मैंने अमीरूल मोमेनीन (अ0) को यह फ़रमाते हुए सुना है के सबसे पहले तुम हाथ के जेहाद में मग़लूब होगे उसके बाद ज़बान के जेहाद में और उसके बाद दिल के जेहाद में मगर यह याद रखना के अगर किसी ‘ाख़्स ने दिल से अच्छाई को अच्छा और बुराई को बुरा नहीं समझा तो उसे इस तरह उलट-पलट दिया जाएगा के पस्त बलन्द हो जाए और बलन्द पस्त हो जाए।

375- हक़ हमेशा संगीन होता है मगर ख़ुशगवार होता है और बातिल हमेशा आसान होता है मगर मोहलक होता है।
376- देखो!  इस उम्मत के बेहतरीन आदमी के बारे में भी अज़ाब से मुतमईन न हो जाना के अज़ाबे इलाही की तरफ़ से सिर्फ़ ख़सारे वाले ही मुतमईन होकर बैठ जाते है और इसी तरह इस उम्मत के बदतरीन के बारे में भी रहमते ख़ुदा से मायूस न हो जाना के रहमते ख़ुदा से मायूसी सिर्फ़ काफ़िरों का हिस्सा है।
(वाज़ेह रहे के इस इरशाद का ताल्लुक़ सिर्फ़ इन गुनहगारों से है जिनका अमल उन्हें सरहदे कुफ्ऱ तक न पहुंचा दे वरना काफ़िर तो बहरहाल रहमते ख़ुदा से मायूस रहता है)
377- बुख़ल उयूब की तराम बुराइयों का जामअ है और यही वह ज़माम है जिसके ज़रिये इन्सान को हर बुराई की तरफ़ खींच कर ले जाता है।
378- इब्ने आदम! रिज़्क़ की दो क़िस्में हैं एक रिज़्क़ वह है जिसे तुम तलाश कर रहे हो और एक रिज़्क़ वह है जो तुमको तलाश कर रहा है के अगर तुम उस तक न पहुंचोगे तो वह तुम्हारे पास आ जाएगा। लेहाज़ा एक साल के हम व ग़म को एक दिन पर बरबाद न कर दो। हर दिन के लिये उसी दिन की फ़िक्र काफ़ी है, इससके बाद अगर तुम्हारी उम्र में एक साल बाक़ी रह गया तो हर आने वाला दिन अपना रिज़्क़ अपने साथ लेकर आएगा और अगर साल बाक़ी नहीं रह गया है तो साल भर की फ़िक्र की ज़रूरत ही क्या है। तुम्हारे रिज़्क़ को तुमसे पहले कोई पा नहीं सकता है और तुम्हारे हिस्से पर कोई ग़ालिब आ नहीं सकता है बल्कि जो तुम्हारे हक़ में मुक़द्दर हो चुका है वह देर से भी नहीं आएगा।
सय्यद रज़ी- यह इरशादे गिरामी इससे पहले भी गुज़र चुका है मगर यहां ज़्यादा वाज़ेह और मुफ़स्सल है लेहाज़ा दोबारा ज़िक्र कर दिया गया है।
(((इसका यह मक़सद हरगिज़ नहीं है के इन्सान मेहनत व मशक़्क़त छोड़ दे और इस उम्मीद में बैठ जाए के रिज़्क़ की दूसरी क़िस्म बहरहाल हासिल हो जाएगी और इसी पर क़नाअत कर लेगा। बल्कि यह दरहक़ीक़त उस नुक्ते की तरफ़ इशारा है के यह दुनिया आलमे असबाब है यहाँ मेहनत व मशक़्क़त बहरहाल करना है और यह इन्सान के फ़राएज़े इन्सानियत व अब्दीयत में ‘ाामिल है लेकिन इसके बाद भी रिज़्क़ का एक हिस्सा है जो इन्सान की मेहनत व मशक़्क़त से बालातर है और वह इन असबाब के ज़रिये पहुंच जाता है जिनका इन्सान तसव्वुर भी नहीं करता है जिस तरह के आप घर से निकलें और कोई ‘ाख़्स रास्ते में एक ग्लास पानी या एक प्याली चाय पिला दे, ज़ाहिर है के यह पानी या चाय न आपके हिसाबे रिज़्क़ का कोई हिस्सा है और न आपने इसके लिये कोई मेहनत की है। यह परवरदिगार का एक करम है जो आपके ‘ाामिले हाल हो गया है और उसने इस नुक्ते की वज़ाहत कर दी के अगर ज़िन्दगानी दुनिया में मेहनत नाकाफ़ी भी हो जाए तो रिज़्क़ का सिलसिला बन्द होने वाला नहीं है। परवरदिगार के पास अपने वसाएल मौजूद हैं वह इन वसाएल से रिज़्क़ फ़राहम कर देगा। वह मोसब्बेबुल असबाब है, असबाब का पाबन्द नहीं है।)))
379- बहुत से लोग ऐसे दिन का सामना करने वाले हैं जिससे पीठ फिराने वाले नहीं हैं और बहुत से लोग ऐसे हैं जिनकी क़िस्मत पर सरे ‘ााम रश्क किया जाता है और सुबह होते उन पर रोने वालियों का हुजूम लग जाता है।

380- गुफ़्तगू तुम्हारे क़ब्ज़े में है जब तक इसका इज़हार न हो जाए। इसके बाद फिर तुम इसके क़ब्ज़े में चले जाते हो। लेहाज़ा अपनी ज़बान को वैसे ही महफ़ूज़ रखो जैसे सोने चान्दी की हिफ़ाज़त करते हो। के बाज़ कलेमात नेमतों को सल्ब कर लेते हैं और अज़ाब को जज़्ब कर लेते हैं।
381- जो बात नहीं जानते हो उसे ज़बान से मत निकालो बल्कि हरर वह बात जिसे जानते हो उसे भी मत बयान करो के अल्लाह ने हर अज़ो बदन के कुछ फ़राएज़ क़रार दिये हैं और उन्हीं के ज़रिये रोज़े क़यामत हुज्जत क़ायम करने वाला है।
382- इस बात से डरो के अल्लाह तुम्हें मासीयत के मौक़े पर हाज़िर देखे और इताअत के मौक़े पर ग़ायब पाए के इस तरह ख़सारा वालों में ‘ाुमार हो जाओगे। अगर तुम्हारे पास ताक़त है तो उसका इज़हार इताअते ख़ुदा में करो और अगर कमज़ोरी दिखलाना है तो उसे मासियत के मौक़े पर दिखलाओ।
383- दुनिया के हालात देखने के बावजूद इसकी तरफ़ रूझान और मीलान सिर्फ़ जेहालत है और सवाब के यक़ीन के बाद भी नेक अमल में कोताही करना ख़सारा है। इम्तेहान से पहले हर एक पर एतबार कर लेना आजिज़ी और कमज़ोरी है।
384- ख़ुदा की निगाह में दुनिया की हिक़ारत के लिये इतना ही काफ़ी है के इसकी मासियत इसी दुनिया में होती है आौर इसकी असली नेमतें इसको छोड़ने के बग़ैर हासिल नहीं होती हैं।
385- जो किसी ‘ौ का तलबगार होता है वह कुल या जुज़ बहरहाल हासिल कर लेता है।
386- वह भलाई भलाई नहीं है जिसका अन्जाम जहन्नम हो और वह बुराई बुराई नहीं है जिसकी आक़ेबत जन्नत हो। जन्नत के अलावा हर नेमत हक़ीर है और जहन्नुम से बच जाने के बाद हर मुसीबत आफ़ियत है।
387- याद रखो के फ़क्ऱ व फ़ाक़ा भी एक बला है और इससे ज़्यादा सख़्त मुसीबत बदन की बीमारी है और इससे ज़्यादा दुश्वारगुज़ार दिल की बीमारी है। मालदारी यक़ीनन एक नेमत है लेकिन इससे बड़ी नेमत सेहते बदन है और इससे बड़ी नेमत दिल की परहेज़गारी है।
(((यह नुक्ता उन ग़ोरबा और फ़ोक़रा के समझने के लिये है जो हमेशा ग़ुरबत का मरसिया पढ़ते रहते हैं और कभी सेहत का ‘ाुक्रिया नहीं अदा करते हैं जबके तजुर्बात की दुनिया में यह बात साबित हो चुकी है के अमराज़ का औसत दौलतमन्दों में ग़रीबों से कहीं ज़्यादा है और हार्ट अटैक के बेशतर मरीज़ इसी ऊंचे तबक़े से ताल्लुक़ रखते हैं। बल्कि बाज़ औक़ात तो अमीरों की ज़िन्दगी में ग़िज़ाओं से ज़्यादा हिस्सा दवाओं का होताा है और वह बेशुमार ग़िज़ाओं से यकसर महरूम हो जाते हैं।
सेहते बदन  परवरदिगार का एक मख़सूस करम है जो वह अपने बन्दों के ‘ाामिलेहाल कर देता है लेकिन ग़रीबों को भी इस नुक्ते का ख़याल रखना चाहिये के अगर उन्होंने इस सेहत का ‘ाुक्रिया न अदा किया और सिर्फ़ ग़ुरबत की शिकायत करते रहे तो इसका मतलब यह है के यह लोग जिस्मानी एतबार से सेहतमन्द हैं लेकिन रूहानी एतबार से बहरहाल मरीज़ हैं और यह मर्ज़ नाक़ाबिले इलाज हो चुका है। रब्बे करीम हर मोमिन व मोमेना को इस मर्ज़ से निजात अता फ़रमाए।)))
388- जिसको अमल पीछे हटा दे उसे नसब आगे नहीं बढ़ा सकता है। या (दूसरी रिवायत में) जिसके हाथ से अपना किरदार निकल जाए उसे आबा व अजदाद के कारनामे फ़ायदा नहीं पहुंचा सकते हैं।
389- मोमिन की ज़िन्दगी के तीन औक़ात होते हैं- एक साअत में वह अपने रब से राज़ व नियाज़ करता है और दूसरे वक़्त में अपने मआश की इस्लाह करता है और तीसरे वक़्त में अपने नफ़्स को उन लज़्ज़तों के लिये आज़ाद छोड़ देता है जो हलाल और पाकीज़ा हैं।
किसी अक़्लमन्द को यह ज़ेब नहीं देता है के अपने घर से दूर हो जाए मगर यह के तीन में से कोई एक काम हो - अपने मआश की इस्लाह करे, आख़ेरत की तरफ़ क़दम आगे बढ़ाए, हलाल और पाकीज़ा लज़्ज़त हासिल करे।
390- दुनिया में ज़ोहद इख़्तेयार करो ताके अल्लाह तुम्हें इसकी बुराइयों से आगाह कर दे और ख़बरदार ग़ाफ़िल न हो जाओ के तुम्हारी तरफ़ से ग़फ़लत नहीं बरती जाएगी।
391- बोलो ताके पहचाने जाओ इसलिये के इन्सान की ‘ाख़्िसयत इसकी ज़बान के नीचे छुपी रहती है।
392- जो दुनिया में हासिल हो जाए उसे ले लो और जो चीज़ तुमसे मुंह मोड़ ले तुम भी उससे मुंह फेर लो और अगर ऐसा नहीं कर सकते हाो तो तलब में मयानारवी से काम लो।
393- बहुत से अलफ़ाज़ हमलों से ज़्यादा असर रखने वाले होते हैं।
(((इसी बुनियाद पर कहा गया है के तलवार का ज़ख़्म भर जाता है लेकिन ज़बान का ज़ख़्म नहीं भरता है। और इसके अलावा दोनों का बुनियादी फ़र्क़ यह है के हमलों का असर महदूद इलाक़ों पर होता है और जुमलों का असर सारी दुनिया में फैल जाता है जिसका मुशाहेदा इस दौर में बख़ूबी किया जा सकता है के हमले तमाम दुनिया में बन्द पड़े हैं लेकिन जुमले अपना काम कर रहे हैं और मीडिया सारी दुनिया में ज़हर फैला रहा है और सारे आलमे इन्सानियत को हर जहत और एतबार से तबाही और बरबादी के घाट उतार रहा है।)))
394- जिस पर इक्तिफ़ा कर ली जाए वही काफ़ी हो जाता है।
(((हिरस व हव सवह बीमारी है जिसका इलाज क़नाअत और किफ़ायत ‘ाआरी के अलावा कुछ नहीं है। यह दुनिया ऐसी है के अगर इन्सान इसकी लालच में पड़ जाए तो मुल्के फ़िरऔन और इक़्तेदारे यज़ीद व हज्जाज भी कम पड़ जाता है और किफ़ायत ‘ाआरी पर आ जाए तो जौ की रोटियाँ भी उसके किरदार कर एक हिस्सा बन जाती हैं और वह निहायत दरजए बेनियाज़ी के साथ दुनिया को तलाक़ देने पर आमादा हो जाता है और फ़िर रूजू करने का भी इरादा नहीं करता है।)))
395- मौत हो लेकिन ख़बरदार ज़िल्लत न हो।
कम हो लेकिन दूसरों को वसीला न बनाना पड़े।
जिसे बैठकर नहीं मिल सकता है उसे खड़े होकर भी नहीं मिल सकता है।
ज़माना दोनों का नाम है- एक दिन तुम्हारे हक़ में हाोता है तो दूसरा तुम्हारे खि़लाफ़ होता है लेहाज़ा
अगर तुम्हारे हक़ में हो तो मग़रूर न हो जाना और तुम्हारे खि़लाफ़ हो जाए तो सब्र से काम लेना।
(((यहाँ बैठने से मुराद बैठ जाना नहीं है वरना इस नसीहत को सुनकर हर इन्सान बैठ जाएगा और मेहनत व मशक़्क़त का सिलसिला ही मौक़ूफ़ हो जाएगा बल्कि इस बैठने से मुराद बक़द्रे ज़रूरत मेहनत करना है जो इन्सानी ज़िन्दगी के लिये काफ़ी हो और इन्सान उससे ज़्यादा जान देने पर आमादा न हो जाए के इसका कोई फ़ायदा नहीं है और फ़िज़ूल मेहनत से कुछ ज़्यादा हासिल होने वाला नहीं है।)))
396- बेहतरीन ख़ुशबू का नाम मुश्क है जिसका वज़्न इन्तेहाई हलका होता है और ख़ुशबू निहायत दरजा महकदार होती है।

397- फ़ख़्र व सरबलन्दी को छोड़ दो और तकब्बुर व ग़ुरूर को फ़ना कर दो और फिर अपनी क़ब्र को याद करो।

398- फ़रज़न्द का बाप पर एक हक़ होता है और बाप का फ़रज़न्द पर एक हक़ होता है। बाप का हक़ यह है के बेटा हर मसले में इसकी इताअत करे मासियते परवरदिगार के अलावा और फ़रज़न्द का हक़ बाप पर यह है के उसका अच्छा सा नाम तजवीज़ करे और उसे बेहतरीन अदब सिखाए और क़ुराने मजीद की तालीम दे।

399- चश्मे बद- फ़सोंकारी, जादूगरी और फ़ाल नेक यह सब वाक़ईयत रखते हैं लेकिन बदशगूनी की कोई हक़ीक़त नहीं है और यह बीमारी की छूत छात भी बेबुनियाद अम्र है। ख़ुशबू, सवारी, ‘ाहद और सब्ज़ा देखने से फ़रहत हासिल होती है।

(((काश कोई ‘ाख़्स हमारे मुआशरे को इस हक़ीक़त से आगाह कर देता और इसे बावर करा देता के बद ‘ागूनी एक वहमी अम्र है और इसकी कोई हक़ीक़त व वाक़ईयत नहीं है और मर्दे मोमिन को सिर्फ़ हक़ाएक़ और वाक़ेयात पर एतमाद करना चाहिये। मगर अफ़सोस के मुआशरे का सारा कारोबार सिर्फ़ औहाम व ख़यालात पर चल रहा है और ‘ागूने नेक की तरफ़ कोई ‘ाख़्स मुतवज्जेह नहीं होता है और बदशगूनी का एतबार हर ‘ाख़्स कर लेता है और इसी पर बेशुमार समाजी असरात भी मुरत्तब  हो जाते हैं और मुआशेरती फ़साद का एक सिलसिला ‘ाुरू हो जाता है।)))
400- लोगों के साथ एख़लाक़ियात में क़ुरबत रखना उनके ‘ार से बचाने का बेहतरीन ज़रिया है।
((( चूंके हर इन्सान की ख़्वाहिश होती है के लोग उसके साथ बुरा बरताव न करें और वह हर एक के ‘ार से महफ़ूज़ रहे लेहाज़ा इसका बेहतरीन तरीक़ा यह है के लोगों से ताल्लुक़ात क़ायम करे और उनसे रस्म-राह बढ़ाए ताके वह ‘ार फैलाने का इरादा  ही न करें। के मुआशरे में ज़्यादा हिस्सए ‘ार इख़तेलााफ़ और दूरी से पैदा होता है वरना क़ुरबत के बाद किसी न किसी मिक़दार में तकल्लुफ़ ज़रूर पैदा हो जाता है।)))
401- एक ‘ाख़्स ने आपके सामने अपनी औक़ात से ऊंची बात कह दी, तो फ़रमाया तुम तो पर निकलने से पहले ही उड़ने लगे और जवानी आने से पहले ही बिलबिलाने लगे।
सय्यद रज़ी- ‘ाकीर परिन्दा के इब्तिदाई परों को कहा जाता है और सक़ब छोटे ऊंट का नाम है जबके बिलबिलाने का सिलसिला जवाने के बाद ‘ाुरू होता है।
(((बहुत से लोग ऐसे होते हैं जिनके पास इल्म व फ़ज़्ल और कमाल व हुनर कुछ नहीं होता है लेकिन ऊंची महफ़िलों में बोलने का ‘ाौक़ ज़रूर रखते हैं जिस तरह के बाज़ ख़ोतबा कमाले जेहालत के बावजूद हर बड़ी से बड़ी मजलिस से खि़ताब करने के उम्मीदवार रहते हैं और उनका ख़याल यह होता है के इस तरह अपनी ‘ाख़्सियत का रोब क़ायम कर लेंगे और यह एहसास भी नहीं होता है के रही सही इज़्ज़त भी चली जाएगी और मजमए आम में रूसवा हो जाएंगे।
अमीरूल मोमेनीन (अ0) ने ऐसे ही अफ़राद को तम्बीह की है जो क़ब्ल अज़ वक़्त बालिग़ हो जाते हैं और बलूगे़ फ़िक्री से पहले ही बिलबिलाने लगते हैंं।)))
402- जो मुख़तलिफ़ चीज़ों पर नज़र रखता है उसकी तदबीरें उसका साथ छोड़ देती हैं।

403- आपसे दरयाफ़्त किया गया के ‘‘लाहौला वला क़ूवता इल्ला बिल्लाह’’ के मानी क्या हैं? तो फ़रमाया के हम अल्लाह के साथ किसी चीज़ का इख़्तेयार नहीं रखते हैं और जो कुछ मिल्कियत है सब उसी की दी हुई है तो जब वह किसी ऐसी चीज़ का इख़्तेयार देता है जिसका इख़्तेयार उसके पास हमसे ज़्यादा है तो हमें ज़िम्मेदारियां भी देता है और जब वापस ले लेता है तो ज़िम्मेदारियों को उठा लेता है।

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