Tuesday, June 7, 2011

Nahjul Balagha Hindi khtba-e-mojeza नहजुल बलाग़ा हिन्दी ख़ुत्बए मोजिज़ा

ख़ुत्बए मोजिज़ा

(((इब्ने अबी अलहदीद अपनी ‘ार्ह नहजुल बलाग़ा में नाक़िल हैं के एक दिन ‘‘सहाबाए  कराम’’ में यह बहस हो रही थी के हुरूफ़े तहज्जी में सबसे ज़्यादा कसीरूल इस्तेमाल हर्फ़ कौन सा है? तै हुआ के कलाम में ‘‘अलिफ़’’ बग़ैर काम नहीं चल सकता। यह  सुनकर अली इब्ने अबीतालिब (अ0) खड़े हो गए और फ़िल बदीहा एक ऐसा ख़ुत्बा  इरशाद फ़रमाया जो मफ़हूम के एतबार से निहायत पुरमग़्ज़ और बलीग़ लफ़्ज़ों के लेहाज़ से इन्तेहाई पुर असर और फ़सीह है फ़िर लुत्फ़ यह है के मक़फ़ी होते हुए भी इब्तिदा से आखि़र तक ‘‘आविर्द’’ की तरह ‘‘अलिफ़’’ से भी ख़ाली है।)))

मुस्तहके़ हम्द है वह माबूद जिसकी अज़मत ख़ेज़ मिन्नत मुकम्मल नेमत, ग़ज़ब से बढ़ी हुई रहमत, हमहगीर मशीयत, महीते हुज्जत, दुरूस्त फ़ैसले मुझे दावते हम्द दे रहे  हैं।

जिस तरह कोई रूबूबियत से मुतमस्सिक उबूदियत में मुस्तग़र्रिक़, तौहीद में मुतफ़र्रिद, लग़्िज़श से बड़ी, धमकियों से ख़ौफ़ज़दा, महशर की किस्मपुरसी में बख़्शतों की तरफ़ मुतवज्जेह होकर माबूद की तारीफ़ करे, बईना यू नहीं हैं भी मदहेगुस्तर हूँ।

हम माबूद ही से रशद व मदद व रहबरी के मुतमन्नी हैं वही हस्ती हम सबके लिये मरकज़तरीन व महबूब तवक्कल है अब्दे मुख़लिस की तरह हम वजूदे माबूद के मुक़र्रर हैं मोमिन मुत्तक़ीन की तरह मुनफ़रिद समझते हैं मज़बूत अक़ीदा बन्दे की तरह फ़र्द फ़रीद तस्लीम करते हैं न कोई मुल्क में ‘ारीक है, न सनअतगरी में दस्तगीर वह मुशीर व वज़ीर के मशविरों से बरतर है, नीज़ मदद व मददकुनन्दा हम पस्त व हमर की ज़रूरत से मुस्तग़नी, क़ुदरत हमस ब की लग़्िज़शों को ख़ूब समझती है मगर मख़फ़ी रखती है वह तो तह की चीज़ों से भी ख़बर रखती है वह हुकूमत में सबको मुनज़्ज़म रखती है, हुक्म से सरकशी के वक़्त भी अफ़ो के क़लम को हरकत देती है, लोग बन्दगी करते हैं तो क़ुदरत एवज़ ‘ाुक्रिया पेश करती है, फ़ैसले में हमेशा अद्ल को मद्दे नज़र रखती है वह हमेशा से है हमेशा रहेगी। माबूद की मिस्ल व नज़ीर न कोई चीज़ थी, न है, न होगी, वह हर ‘ौ से पहले है, नीज़ हर ‘ौ के बाद है वह इज़्ज़त से मोअजि़्ज़ज़ है, क़ूवत से मुतमक्कुन, बुज़ुर्गी की वजह से मु़क़द्दस है बरतरी की वजह से मुतकब्बिर है, चश्मे मख़लूक़ न माबूदे हक़ीक़ी को देख सकती है न किसी की नज़र महीत हो सकती है, वह क़वी व मुनीअ, समीअ व बसीर, रऊफ़ व रहीम है वस्फ़ कुन्दा माबूद, की ग़ैर महदूद सिफ़तों को देखकर गंग हैं बल्कि मारेफ़त के मुद्दई भी हक़ीक़ी तारीफ़ से गुमगश्ता हैं वह नज़दीक होते हुए दूर है, दूर होते हुए नज़दीक है। यह क़ुदरत ही तो है जो हर दावत पर लब्बैक कहती है, रिज़्क़ देती है बल्कि ज़रूरत से बढ़कर भी बख़्‘ा देती है, वही तो मख़फ़ी मुरव्वत क़वी ‘ाौकत की मज़हर नीज़ वसीअ रहमत, तकलीफ़देह उक़ूबत की मिसदर है। यह वही हस्ती तो है जिसकी रहमत लम्बी चैड़ी क़ुबूल सूरत जन्नत है, जिसकी उक़ूबत वसीअ व तहलकाख़ेज़ दोज़ख़ है मेरी हस्ती बअसते मोहम्मद (स0) की मिस्दक़ है जो रसूले अरबी अब्दे हक़ीक़ी बुरगज़ीदा नबी, ‘ारीफ़ ख़सलत, हबीब व ख़लील हैं। वह हज़रत बेहतरीन अहद मगर कुफ्ऱ व बेअमली के दौर में मन्सबे नबूवत पर मुतमक्कन हुए बन्दों पर रहम करते हुए मिन्नत व करम में मज़ीद तरक़्क़ी देते हुए क़ुदरत ने कुल कमी पूरी कर दी यानी मोहम्मद (स0) पर नबूवत ख़त्म करके हुज्जत मुस्तहकम कर दी।

हज़रत ने भी लोगों को वएज़ व नसीहत करने में कोई कमी नहीं की बल्कि भरपूर जद्दो जेहद की। वह हज़रत जुमला मोमेनीन के लिये ‘ाफ़ीअ हमदर्द, रहम दिल, सख़ी, पसन्दीदा व बरगुज़ीदा वली थे रब्ब व रहीम, क़रीब व मुजीब हकीम की तरफ़ से मोहम्मदे अरबी पर रहमत व तस्लीम नीज़ बरकत व ताज़ीम व तकरीम की बढ़न्ती (कसरत) हो, गिरोहे मौजूद! मेरे ज़रिये से तुम लोगों के लिये रब्बे क़दीर की वसीयत, नबीए करीम की सुन्नत पेश हो रही है जिसमें तुम सबके लिये नीज़ मेरे लिये नसीहत व मौएज़त के दफ़्तर हैं। तुम पर फ़र्ज़ है के तुम में वह डर मौजूद हो जिससे ख़ुद तुम्हीं लोगों के दिल को सुकून मयस्सर हो, वह ख़ौफ़ मख़फ़ी हो जिसकी मौजूदगी में चश्मे नम से सील न निकले, वह तक़य्या हो जो बोसीदगी के दिन से पहले  ही कल महलकों से महफ़ूज़ कर दे, नीज़ रोज़े महशर से बेफ़िक्र कर दे जबके नेकियों की तूल वज़नी बदियों की तूल सुबुक  होने की वजह से बशर को ऐश व इशरत की ज़िन्दगी नसीब होगी। तुम लोगों पर यह भी फ़र्ज़ है के ख़ुशू व ख़ुज़ू, तौबा व रूजूअ ज़िल्लत व ‘ार्मिन्दगी की सूरतत से माबूद की खि़दमत में अर्ज़ व मअरूज़ व तमलक़ करो। नीज़ तुम लोग मौक़े को ग़नीमत समझो, मर्ज़ से पहले  सेहत की क़द्र करो, पीर फरतूत होने से पहले पीरी की इज़्ज़त करो, फ़क़ीरी से पहले दौलत की तौक़ीर करो। मशग़ूलियत से पहले वक़्ते फ़ुरसत को मद्दे नज़र रखो, सफ़र से पेशतर हिज़्र की क़द्र करो, करने से पहले ज़िन्दगी की हक़ीक़त को समझ लो, न मालूम कितने होंगे जो ज़ईफ़ व कमज़ोर मरीज़ बन गए हों जिनकी कैफ़ियत यह होगी के ख़ुद तबीब (नुस्ख़ा लिखते लिखते) थकन महसूस करने लगेंगे, दोस्त भी परहेज़ करने लगेंगे उम्र ख़त्म के क़रीब होगी, अक़्ल व फ़हम मुंह मोड़ चुके होंगे, कुछ लोग यह कह रहे होंगे के यह तो (जूतों से) पटी हुई सूरत है, जिस्म भी (पतली छड़ी की तरह) मदक़ूक़ है के यक ब यक नज़अ की कैफ़ियत ‘ाुरू हो गई नज़दीक व दूर के सब लोग मौजूद होंगे। मरीज़ के दीदों की गर्दिश सल्ब होगी। टकटकी बन्धी होगी, जबीन अर्क़ रेज़, बीनी कज, तकलीफ़देह  चीख़ में सुकून, बस नफ़्स में रन्ज व ग़म की कैफ़ियत महसूस हो रही होगी। बीवी रो-पीट रही होगी, बच्चे यतीम हो रहे होंगे। लहद दुरूस्त हो रही होगी। अज़ीज़ों में तफ़रिक़े की नीव पड़ रही होगी। तरके की तक़सीम होती होगी मगर ख़ुद मय्यत चश्म व गोश से बेताल्लुक़ होगी नौबत यह पहुंचेगी के लोग जिस्म  के हिस्से खींच-खींच कर दुरूस्त कर देंगे फिर बदन से कपड़े दूर करेंगे यूं ही बरहना ग़ुस्ल देंगे, फिर धो- पोंछ कर किसी चीज़ पर रख देंगे। बादहू कफ़न में लेटेंगे। पहले मय्यत की ठुड्डी की  बन्दिश करेंगे फिर क़ैस देकर सर पर पगड़ी लपेट देंगे, फिर तस्लीम करके रूख़सत करेंगे यानी किसी तख़्त पर मय्यत को रखेंगे, फिर बग़ैर सजदे के फ़रीज़े से तकबीर कह कर सब लोग सुबुकदोश होंगे, नीज़ मय्यत के लिये मग़फ़ेरत तलब करेंगे। फ़िर ज़ेब व ज़ीनत दिये हुए घर, मज़बूत व मुस्तहकम बने हुए क़स्र, सरबलन्द व मज़ीन महल से  मुन्तक़िल करके लहद बनी हुई क़ब्र पहले से दुरूस्त किये हुए गड्ढे के सुपुर्द कर देंगें जिस पर संग व ख़ुश्त को बहम करके (मामूली सी) छत दुरूस्त कर देंगे फिर कुछ मिट्टी कुछ ढेले से गड्ढे को भर देंगे यही पर लोग जदीद मुसीबत को देखकर माबूद की खि़दमत में हुज़ूरी को यक़ीनी समझेंगे लेकिन ख़ुद मुर्दे को सहो महो कर देंगे। दोस्त हमदम हम मशरिब, अज़ीज़ क़रीब दफ़्न से पलटने के बाद दूसरे दूसरे दोस्त व रफ़ीक़ ढूंढ लेंगे मगर मय्यत ग़रीब बेकसी के घर में गरो है बल्कि क़ब्र के पेट में लुक़्मा है कैफ़ियत यह  है के लहद के कीड़े बेहिस जिस्म पर दौड़ रहे हैं, नथनों से रूतूबत बह  रही  है, कीड़े तोड़े गोश्त व पोस्त को छलनी कर रहे हैं, ख़ून पी रहे हैं हड्डियों को बोसीदा कर रहे हैं, यौमे महशर तक यही सूरते हाल रहेगी। फिर सूर फूंकने के वक़्त हश्र व नश्र के लिये तलब होंगे। यही तो वह  वक़्त है के क़ब्रों की जुस्तजू होगी सीने के मख़फ़ी ख़ज़ीने पेश होंगे नबी सिद्दीक़ ‘ाहीद  (यानी मोहम्मद (स0) अली (अ0) हुसैन (अ0)) महशर में तलब होंगे फिर रब्बे क़दीर की  तरफ़ से जो के ख़बीर व बसीर है सबके फ़ैसले होंगे। मुल्के अज़ीम के पेशे नज़र जो हर छोटी बड़ी चीज़ से मुतलअ है, महशर के ज़बरदस्त  पुरहौल मौक़ुफ़ में न मालूम कितने ज़िन्दगीकश ‘ायून बलन्द होंगे, न मालूम कितनी दबी हुई हसरतें पूरी होंगी (यानी ज़ुल्म पेशा गिरोह से मज़लूमों के हुक़ुक़ मिलेंगे) यही वह वक़्त है जबके गले गले  पसीने में सब ग़र्क़ होंगे, जहन्नम के ‘ाोले हर तरफ़ से घेरे होंगे, चश्मे हसरत से मुसलसल झड़ी बन्धने के बाद भी रहमत के दरमस्दूद चीख़ें बेसूद दलीलें मरदूद होंगी। जुर्म हद को पहुंच चुके होंगे दफ़्तरे अमल खुले रखे होंगे पेशे नज़र बुरे अमल होंगे चश्मे मुजरिम, नज़र की लग़्िज़श की, दस्ते ज़ुल्म तादी के, क़दम ग़लत रोश के, जिल्दे बदन, ग़ैर महरम से मिलने के जिस्म के मख़फ़ी हिस्से लम्स व तक़बील के ख़ुद ब ख़ुद मुक़र्रर होंगे। ख़त्मे हुज्जत के बाद, तौक़ दरे गरदन, दस्त ब ज़न्जीर खींचते घसीटते दोज़ख़ की तरफ़ ले चलेंगे फिर कर्ब व शिद्दत की मईयत में जहन्नुम के सुपुर्द कर देंगे पस तरह-तरह की उक़ूबतें ‘ाुरू होंगी, पीने के लिये ख़ून, पीप पेश करेंगे जिसकी वजह से सूरत झुलसी हुई मालूम होगी। जिस्म की जिल्द गल-गल के  गिर रही होगी। लोहे के गुर्ज़ से फ़रिश्ते पीट रहे होंगे, जिल्दे बदन जल-जल के गिरती होगी। दूसरी नई जिल्द बनती होगी। बदनसीब के दोने पीटने की तरफ़ से जहन्नुम के मोवक्किल फ़रिश्ते भी मुंह फेरे होंगे। ग़रज़ के यूंहीं मुद्दतों चीख़ नीज़ ‘ार्मिन्दगी की कैफ़ियत में बसर होगी। हम रब्बे क़दीर से हर तरह के फ़ित्ने व ‘ार से तलबे हिफ़्ज़ करते हैं वह जिन लोगों से ख़ुश होकर जिस मक़बूलियत की सफ़ में जगह दिये हुए है हम भी कुछ वैसी ही मग़फ़ेरत व मक़बूलियत के मुतमन्नी हैं क्योंके वही हस्ती हम सबके हर मक़सूद व मतलब की मुतकफ़िल है बेशक जो लोग माबूद की उक़ूबतों से (नेक चलन होने की वजह से) बच गए वह इज़्ज़त माबूद ही के तुफ़ैल से जन्नत में पहुंचेंगे। सर बलन्द व मुस्तहकम महलों में हमेशा हमेशा के लिये ठहरेंगे जिस जगह ऐश व इशरत के लिये हूरें मिलेंगी, खि़दमत के लिये नौकर मौजूद होंगे, ‘ाीशा व ख़म गर्दिश में होंगे मुक़द्दस मन्ज़िलों में मुक़ीम होंगे। नेमतों में करवटें बदलते होंगे, तसनीम व  सलसबील को मुतमईन होकर पीते होंगे जिसके हर जरए तरह तरह की ख़ुशबुओं में बसे होंगे। यह सब चीज़ें  हमेशगी की मिल्कियत होंगी जिसमें सूरूर की हिस क़वी होगी, हरे भरे चमन में मय नौशी होगी, मै नौशों को न दर्देसर की तकलीफ़ होगी  न कोई दूसरी ज़हमत होगी। मगर यह मन्ज़िलत ख़ौफ़ व ख़शीयत से मुत्तसिफ़ लोगों की है जो नफ़्स की सरकशियों से हर वक़्त ख़तरे में रहते हैं। (यानी हिरस व हवस के फन्दों से बच कर निकलने की कोशिश करते रहते हैं)  बेशक जो लोग हक़ के मुन्किर हों, मज़कूरा  हक़ीक़तों को भूले बैठे हों मासीयत कोशी में निडर हों, पुरफ़रेब नफ़्स के धोके में पड़े हों, वह माबूद हक़ीक़ी की तरफ़ से उक़ूबत के मुस्तहेक़ हैं। क्योंके दुरूस्त फ़ैसला मोतदिल हुक्म यही है। (देखो- सबसे बेहतर क़िस्सा सबसे खरी नसीहत हकीमे मुतलक़ की तन्ज़ील है जिसे जिबरईल पहले से रहबरे कुल हज़रत मोहम्मद (स0) के क़ल्बे मोहतरम के सुपुर्द कर चुके हैं। मुकर्रम व नेक मन्श सफ़ीरों की तरफ़ से हज़रत पर दुरूदो रहमत हो। हम हर लईन व रजीम दुश्मन के ‘ार से बचने के लिये रब्बे अलीम, रहीम, करीम से मदद तलब करते हैं। तुम लोग भी तज़र्रोअ करो। गिरया में मशग़ूल रहो, नीज़ तुम में हर ‘ाख़्स जो नेमते  रब से बहरो वर है ख़ुद नीज़ मेरे लिये तलबे मग़फ़ेरत करे। बस मेरे लिये रब्बे क़दीर की हस्ती बहुत है- फ़क़त

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