Saturday, June 4, 2011

Nahjul Balagha Hindi Aqwal 286-355 नहजुल बलाग़ा हिन्दी अक़वाल 286-355

286- आपसे क़ज़ा व क़द्र के बारे में दरयाफ़्त किया गया तो फ़रमाया के यह एक तारीक रास्ता है इस पर मत चलो और एक गहरा समन्दर है इसमें दाखि़ल होने की कोशिश न करो और एक राज़े इलाही है लेहाज़ा इसे मालूम करने की ज़हमत न करो।
(((इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं है के इस्लाम किसी भी मौज़ू के बारे में जेहालत का तरफ़दार है और न जानने ही को अफ़ज़लीयत अता करता है, बल्कि इसका मतलब सिर्फ़ यह है के अकसर लोग उन हक़ाएक़ के मुतहम्मल नहीं होते हैं लेहाज़ा इन्सान को उन्हीं चीज़ों का इल्म हासिल करना चाहिये जो उसके लिये क़ाबिले तहम्मुल व बर्दाश्त हो इसके बाद अगर हुदूदे तहम्मुल से बाहर हो तो पड़ लिख कर बहक जाने से नावाक़िफ़ रहना ही बेहतर है।)))

287-जब परवरदिगार किसी बन्दे को ज़लील करना चाहता है तो उसे इल्म व दानिश से महरूम कर देता है।

288- गुज़िश्ता ज़माने में मेरा एक भाई था, जिसकी अज़मत मेरी निगाहों में इसलिये थी के दुनियां उसकी निगाहों में हक़ीर थी और उस पर पेट की हुकूमत नहीं थी। जो चीज़ नहीं मिलती थी उसकी ख़्वाहिश नहीं करता था और जो मिल जाती थी उसे ज़्यादा इस्तेमाल नहीं करता था। अकसर औक़ात ख़ामोश रहा करता था और अगर बोलता था तो तमाम बोलने वालों को चुप कर देता था। साएलों की प्यास को बुझा देता था और बज़ाहिर आजिज़ और कमज़ोर था लेकिन जब जेहाद का मौक़ा आ जाता था तो एक शेर बेशाए शुजाअत और अश्दरवादी हो जाया करता था। कोई दलील नहीं पेश करता था जब तक फै़सलाकुन न हो और जिस बात में उज़्र की गुन्जाइश होती थी उस पर किसी की मलामत नहीं करता था जब तक उज्ऱ सुन न ले। किसी दर्द की शिकायत नहीं करता था जब तक इससे सेहत न हासिल हो जाए। जो करता था वही कहता था और जो नहीं कर सकता था वह कहता भी नहीं था। अगर बोलने में उस पर ग़लबा हासिल भी कर लिया जाए तो सुकूत में कोई उस पर ग़ालिब नहीं आ सकता था। वह बोलने से ज़्यादा सुने का ख़्वाहिशमन्द रहता था। जब उसके सामने दो तरह की चीज़ें आती थीं और एक ख़्वाहिश से क़रीबतर होती थी तो उसी की मुख़ालेफ़त करता था। लेहाज़ा तुम सब भी इन्हीं एख़लाक़ को इख़्तेयार करो और उन्हीं की फ़िक्र करो और अगर नहीं कर सकते हो तो याद रखो के क़लील का इख़्तेयार कर लेना कसीर के तर्क कर देने से बहरहाल बेहतर होता है।
(((बाज़ हज़रात का ख़याल है के यह वाक़ेअन किसी शख़्सियत की तरफ़ इशारा है जिसके हालात व कैफ़ियात का अन्दाज़ा नहीं हो सका है और बाज़ हज़रात का ख़याल है के यह एक आईडियल और मिसालिया की निशानदेही है के साहेबे ईमान को इसी किरदार का हामिल होना चाहिये और अगर ऐसा नहीं है तो इसी रास्ते पर चलने की कोशिश करना चाहिये ताके इसका शुमार वाक़ेअन साहेबाने ईमान व किरदार में हो जाए।)))

289-अगर ख़ुदा नाफ़रमानी पर अज़ाब की वईद न भी करता जब भी ज़रूरत थी के शुक्रे नेमत की बुनियाद पर उसकी नाफ़रमानी न की जाए।

(((ज़रूरत नहीं है के इन्सान सिर्फ़ अज़ाब के ख़ौफ़ से मोहर्रमात से परहेज़ करे बल्कि तक़ाज़ाए शराफ़त यह है के नेमते परवरदिगार का एहसास पैदा करके उसकी दी हुई नेमतों को हराम में सर्फ़ करने से इज्तेनाब करे)))

290-अश्अस बिन क़ैस को उसके फ़रज़न्द का पुरसा देते हुए फ़रमाया - अश्अस! अगर तुम अपने फ़रज़न्द के ग़म में महज़ून हो तो यह उसकी क़राबत का हक़ है। लेकिन अगर सब्र कर लो तो अल्लाह के यहाँ हर मुसीबत का एक अज्र है।

अश्अस! अगर तुमने सब्र कर लिया तो क़ज़ा व क़द्रे इलाही इस आलम में जारी होगी के तुम अज्र के हक़दार होगे और अगर तुमने फ़रयाद की तो क़द्रे इलाही इस आलम में जारी होगी के तुम पर गुनाह का बोझ होगा।

अश्अस! तुम्हारे लिये बेटा मसर्रत का सबब था जबके वह एक आज़माइश और इम्तेहान था और हुज़्न का बाएस हो गया जबके इसमें सवाब और रहमत है।

(((यह इस बात की अलामत है के बेटे के मिलने पर मसर्रत भी एक फ़ितरी अम्र है और इसके चले जाने पर हुज़्न व अलम भी एक फ़ितरी तक़ाज़ा है लेकिन इन्सान की अक़्ल का तक़ाज़ा यह है के मसर्रत में इम्तेहान को नज़रअन्दाज़ न करे और ग़म के माहौल में अज्र व सवाब से ग़ाफ़िल न हो जाए।)))
291- पैग़म्बरे इस्लाम (स0) के दफ़्न के वक़्त क़ब्र के पास खड़े होकर फ़रमाया-
सब्र आम तौर से बेहतरीन चीज़ है मगर आपकी मुसीबत के अलावा, और परेशानी व बेक़रारी बुरी चीज़ है लेकिन आपकी वफ़ात के अलावा, आपकी मुसीबत बड़ी अज़ीम है और आपसे पहले और आपके बाद हर मुसीबत आसान है।

(((इसका मतलब यह नही ंके सब्र या जज़्अ व फ़ज़्अ की दो क़िस्में हैं और वह कभी जमील होता है और कभी ग़ैरे जीमल, बल्कि ये मुसीबत पैग़म्बरे इस्लाम (स0) की अज़मत की तरफ़ इशारा है के इस मौक़े पर सब्र का इमकान ही नहीं है जिस तरह दूसरे मसाएब में जज़्अ व फ़ज़्अ का कोई जवाज़ नहीं है और इन्सान को उसे बरदाश्त ही कर लेना चाहिए।)))

292- बेवक़ूफ़ की सोहबत मत इख़्तेयार करना के वह अपने अमल को ख़ूबसूरत बनाकर पेश करेगा और तुमसे भी वैसे ही अमल का तक़ाज़ा करेगा।

293- आपसे मशरिक़ व मग़रिब के फ़ासले के बारे में सवाल किया गया तो फ़रमाया के आफ़ताब का एक दिन का रास्ता।

294- तुम्हारे दोस्त भी तीन तरह के हैं और दुश्मन भी तीन क़िस्म के हैं। दोस्तों की क़िस्में यह हैं के तुम्हारा दोस्त, तुम्हारे दोस्त का दोस्त और तुम्हारे दुश्मन का दुश्मन और इसी तरह दुश्मनों की किस्में यह हैं- तुम्हारा दुश्मन, तुम्हारे दोस्त का दुश्मन और तुम्हारे दुश्मन का दोस्त।

(((यह उस मौक़े के लिये कहा गया है के दोनों की दोस्ती की बुनियाद एक हो वरना अगर एक शख़्स एक बुनियाद पर दोस्ती करता है और दूसरा दूसरी बुनियाद पर मोहब्बत करता है तो दोस्त का दोस्त हरगिज़ दोस्त शुमार नहीं किया जा सकता है जिस तरह के दुश्मन के दुश्मन के लिये भी ज़रूरी है के दुश्मनी की बुनियाद वही हो जिस बुनियाद पर यह शख़्स दुश्मनी करता है वरना अपने अपने मफ़ादात के लिये काम करने वाले कभी एक रिश्तए मोहब्बत में मुन्सलिक नहीं किये जा सकते हैं।)))

295- आपने एक शख़्स को देखा के वह अपने दुश्मन को नुक़सान पहुंचाने की कोशिश कर रहा है मगर उसमें ख़ुद उसका नुक़सान भी है तो फ़रमाया के तेरी मिसाल उस शख़्स की है जो अपने सीने में नैज़ा चुभो ले ताके पीछे बैठने वाला हलाक हो जाए।

296- इबरतें कितनी ज़्यादा हैं और उसके हासिल करने वाले कितने कम हैं।

297- जो लड़ाई-झगड़े में हद से आगे बढ़ जाए वह गुनहगार होता है और जो कोताही करता है वह अपने नफ़्स पर ज़ुल्म करता है और इस तरह झगड़ा करने वाला तक़वा के रास्ते पर नहीं चल सकता है (लेहाज़ा मुनासिब यही है के झगड़े से परहेज़ करे)
298- उस गुनाह की कोई उम्र नहीं है जिसके बाद इतनी मोहलत मिल जाए के इन्सान दो रकअत नमाज़ अदा करके ख़ुदा से आफ़ियत का सवाल कर सके (लेकिन सवाल यह है के इस मोहलत की ज़मानत क्या है)
299- आपसे दरयाफ़्त किया गया के परवरदिगार इस क़द्र बेपनाह मख़लूक़ात का हिसाब किस तरह करेगा? तो फ़रमाया के जिस तरह उन सबको रिज़्क़ देता है। दोबारा सवाल किया गया के जब वह सामने नहीं आएगा तो हिसाब किस तरह लेगा? फ़रमाया जिस तरह सामने नहीं आता है और रोज़ी दे रहा है।
(((इन्सान के ज़ेहन में यह ख़यालात और शुबहात इसीलिये पैदा होते हैं के वह उसकी रज़ाक़ियत से ग़ाफ़िल हो गया है वरना एक मसलए रिज़्क़ समझ में आ जाए तो मसलए मौत भी समझ में आ सकता है और मसलए हिसाब व किताब भी। जो मौत दे सकता है वह रोज़ी भी दे सकता है और जो रोज़ी का हिसाब रख सकता है वह आमाल का हिसाब भी कर सकता है)))
300- तुम्हारा क़ासिद तुम्हारी अक़्ल का तर्जुमान होता है और तुम्हारा ख़त तुम्हारा बेहतरीन तर्जुमान होता है।

301- शदीदतरीन बलाओं में मुब्तिला हो जाने वाला उससे ज़्यादा मोहताजे दुआ नहीं है जो फ़िलहाल आफ़ियत में है लेकिन नहीं मालूम है के कब मुब्तिला हो जाए।
(((इन्सान की फ़ितरत है के जब मुसीबत में मुब्तिला हो जाता है तो दुआएं करने लगता है और दूसरों से दुआओं की इल्तिमास करने लगता है और जैसे ही बला टल जाती है दुआओं से ग़ाफ़िल हो जाता है और इस नुक्ते को अकसर नज़रअन्दाज़ कर देता है के इस आफ़ियत के पीछे भी कोई बला हो सकती है और मौजूदा बला से बालातर हो सकती है। लेहाज़ा तक़ाज़ाए दानिशमन्दी यही है के हर हाल में दुआ करता रहे और किसी वक़्त भी आने वाली मुसीबतों से ग़ाफ़िल न हो के उसके नतीजे में यादे ख़ुदा से ग़ाफ़िल हो जाए।)))
302- लोग दुनिया की औलाद हैं और माँ की मोहब्बत पर औलाद की मलामत नहीं की जा सकती है।
(((इन्सान जिस ख़ाक से बनता है उससे बहरहाल मोहब्बत करता है और जिस माहौल में ज़िन्दगी गुज़ारता है उससे बहरहाल मानूस होता है, इस मसले में किसी इन्सान की मज़म्मत और मलामत नहीं की जा सकती है लेकिन मोहब्बत जब हद से गुज़र जाती है और उसूल व क़वानीन पर ग़ालिब आ जाती है तो बहरहाल क़ाबिले मलामत व मज़म्मत हो जाती है और इसका लेहाज़ रखना हर फ़र्दे बशर का फ़रीज़ा है वरना इसके बग़ैर इन्सान क़ाबिले माफ़ी नहीं हो सकता है)))
303- फ़क़ीर व मिस्कीन दर हक़ीक़त ख़लाई फ़र्सतादा है लेहाज़ा जिसने उसको मना कर दिया गोया ख़ुदा को मना कर दिया और जिसने उसे अता कर दिया गोया क़ुदरत के हाथ में दे दिया।
304- ग़ैरतदार इन्सान कभी ज़िना नहीं कर सकता है (के यही मुसीबत उसके घर भी आ सकती है)।
305- मौत से बेहतर मुहाफ़िज़ कोई नहीं है।
306- इन्सान औलाद के मरने पर सो जाता है लेकिन माल के लुट जाने पर नहीं सोता है।
सय्यद रज़ी- मक़सद यह है के औलाद के मरने पर सब्र कर लेता है लेकिन माल के छिनने पर ब्र नहीं करता है।
(((इसका मक़सद तान व तन्ज़ नहीं है बल्कि इसका मक़सद यह है के मौत का ताल्लुक़ क़ज़ा व क़द्रे इलाही से है लेहाज़ा इस पर सब्र करना इन्सान का फ़रीज़ा है लेकिन माल का छिन जाना ज़ुल्म व सितम और ग़ज़ब व नहब का नतीजा होता है लेहाज़ा इस पर सुकूत इख़्तेयार करना और सुकून से सो जाना किसी क़ीमत पर मुनासिब नहीं है और यह इन्सानी ग़ैरत व शराफ़त के खि़लाफ़ है लेहाज़ा इन्सान को इस नुक्ते की तरफ़ मुतवज्जेह रहना चाहिये)))
307- बुज़ुर्गों की मोहब्बत भी औलाद के लिये क़राबत का दरजा रखती है और मोहब्बत क़राबत की इतनी मोहताज नहीं जितनी क़राबत मोहब्बत की मोहताज होती है।
(मक़सद यह है के तुम लोग आपस में मोहब्बत और उलफ़त रखो ताके तुम्हारी औलाद तुम्हारे दोस्तों को अपना क़राबतदार तसव्वुर करे)
308- मोमेनीन के गुमान से डरते रहो के परवरदिगार हक़ को साहेबाने ईमान ही की ज़बान पर जारी करता रहता है।
309-किसी बन्दे का ईमान उस वक़्त तक सच्चा नहीं हो सकता है जब तक ख़ुदाई ख़ज़ाने पर अपने हाथ की दौलत से ज़्यादा एतबार न करे।
310- हज़रत ने बसरा पहुंचने के बाद अनस बिन मालिक से कहा के जाकर तल्हा व ज़ुबैर को वह इरशादाते रसूले अकरम (स0) बताओ जो हज़रत ने मेरे बारे में फ़रमाए हैं तो उन्होंने पहलू तही की और फिर आकर यह उज्ऱ कर दिया के मुझे वह इरशादात याद नहीं रहे! तो हज़रत (अ0) ने फ़रमाया अगर तुम झूटे हो तो परवरदिगार तुम्हें ऐसे चमकदार दाग़ की मार मारेगा के उसे दस्तार भी नहीं छिपा सकेगी।
सय्यद रज़ी- इस दाग़ से मुराद बुर्स है जिसमें अनस मुब्तिला हो गए और ताहयात चेहरे पर नक़ाब डाले रहे।
(((जनाब शेख़ मोहम्मद अब्दहू का बयान है के उससे इस इरशादे पैग़म्बर (स0) की तरफ़ इशारा था जिसमें आपने बराहेरास्त तल्हा व ज़ुबैर से खि़ताब करके इरशाद फ़रमाया था के तुम लोग अली (अ0) से जंग करोगे और उनके हक़ में ज़ालिम होगे और इब्ने अबी अलहदीद का कहना है के यह उस मौक़े की तरफ़ इशारा है जब पैग़म्बर (स0) ने मैदाने ग़दीर में अली (अ0) की मौलाइयत का एलान किया था और अनस उस मौक़े पर मौजूद थे लेकिन जब हज़रत ने गवाही तलब की तो अपनी ज़ईफ़ी और क़िल्लते हाफ़िज़े का बहाना कर दिया जिस पर हज़रत ने यह बद्दुआ दे दी और अनस उस मर्जे़ बुर्स में मुब्तिला हो गए जैसा के इब्ने क़तीबा ने मुआरिफ़ में नक़्ल किया है।)))
311- दिल भी कभी माएल होते हैं और कभी उचाट हो जाते हैं, लेहाज़ा जब माएल हों तो उन्हें मुस्तहबात पर आमादा करो वरना सिर्फ़ वाजेबात पर इक्तिफ़ा कर लो (के ज़बरदस्ती अमल से कोई फ़ायदा नहीं है जब तक इख़लासे अमल न हो)।
(((इन्सानी आमाल के दो दरजात हैं पहला दरजा वह होता है जब अमल सही हो जाता है और तकलीफे़ शरई अदा हो जाती है लेकिन निगाहे क़ुदरत में क़ाबिले क़ुबूल नहीं होता है यह वह अमल है जिसमें जुमला शराएत व वाजेबात जमा हो जाते हैं लेकिन इख़लासे नीयत और एक़बाले नफ़्स नहीं होता है लेकिन दूसरा दरजा वह होता है जिसमें इक़बाले नफ़्स भी होता है और अमल क़ाबिले क़ुबूल भी हो जाता है।
हज़रत (अ0) ने इसी नुक्ते की तरफ़ इशारा किया है के फ़रीज़ा बहरहाल अदा करना है लेकिन मुस्तहबात का वाक़ेई माहौल उसी वक़्त पैदा होता है जब इन्सान इक़बाले नफ़्स की दौलत से मालामाल हो जाता है और वाक़ेई इबादते इलाही की रग़बत पैदा कर लेता है)))
312- क़ुरान में तुम्हारे पहले की ख़बर तुम्हारे बाद की पेशगोई और तुम्हारे दरम्यानी हालात के एहकाम सब पाए जाते हैं।
313- जिधर से पत्थर आए उधर ही फेंक दो के शर का जवाब शर ही होता है।
314- आपने अपने कातिब अब्दुल्लाह बिन अबी राफ़ेअ से फ़रमाया - अपनी दवात में सौफ डाला करो और अपने क़लम की ज़बान लम्बी रखा करो सतरों के दरम्यान फ़ासला रखो और हर्फ़ों को साथ मिलाकर लिखा करो के इस तरह ख़त ज़्यादा दीदाज़ेब हो जाता है।
315- मैं मोमेनीन का सरदार हूँ और माल फ़ाजिरों का सरदार होता है।
सय्यद रज़ी- यानी साहेबाने ईमान मेरा इत्तेबाअ करते हैं और फ़ासिक़ व फ़ाजिर माल के इशारों पर चला करते हैं जिस तरह शहद की मक्खियाँ अपने यासूब (सरदार) का इत्तेबाअ करती हैं।
316- एक यहूदी ने आप पर तन्ज़ कर दिया के आप मुसलमानों ने अपने पैग़म्बर (स0) के दफ़्न के बाद ही झगड़ा शुरू कर दिया, तो आपने फ़रमाया के हमने उनकी जानशीनी में इख़्तेलाफ़ किया है, उनसे इख़्तेलाफ़ नहीं किया है। लेकिन तुम यहूदियों के तो पैर नील के पानी से ख़ुश्क नहीं होने पाए थे के तुमने अपने पैग़म्बर (स0) ही से कह दिया के ‘‘हमें भी वैसा ही ख़ुदा चाहिये जैसा उन लोगों के पास है’’ जिस पर पैग़म्बर ने कहा के तुम लोग जाहिल क़ौम हो।
(((यह अमीरूल मोमेनीन (अ0) की बलन्दीए किरदार है के आपने यहूदियों के मुक़ाबले में इज़्ज़ते इस्लाम व मुस्लेमीन का तहफ़्फ़ुज़ कर लिया और फ़ौरन जवाब दे दिया वरना कोई दूसरा शख़्स होता तो उसकी इस तरह तौजीह कर देता के जिन लोगों ने पैग़म्बर की खि़लाफ़त में इख़्तेलाफ़ किया है वह ख़ुद भी मुसलमान नहीं थे बल्कि तुम्हारी बिरादरी के यहूदी थे जो अपने मख़सूस मफ़ादात के तहत इस्लामी बिरादरी में शामिल हो गए थे)))
317- आपसे दरयाफ़्त किया गया के आप बहादुरों पर किस तरह ग़लबा पा लेते हैं तो आपने फ़रमाया के मैं जिस शख़्स का भी सामना करता हूँ वह ख़ुद ही अपने खि़लाफ़ मेरी मदद करता है।
सय्यद रज़ी- यानी उसके दिल में मेरी हैबत बैठ जाती है।
(((यह परवरदिगार की वह इमदाद है जो आज तक अली (अ0) वालों के साथ है के वह ताक़त, कसरत और असलह में कोई ख़ास हैसियत नहीं रखते हें लेकिन इसके बावजूद उनकी दहशत तमाम आलमे कुफ्ऱ व शिर्क के दिलों पर बैठी हुई है और हर एक को हर इन्के़लाब व एक़दाम में उन्हीं का हाथ नज़र आता है।)))
318- आपने अपने फ़रज़न्द मोहम्मद हनफ़िया से फ़रमाया - फ़रज़न्द! मैं तुम्हारे बारे में फ़क्ऱ व तंगदस्ती से डरता हूँ लेहाज़ा उससे तुम अल्लाह की पनाह मांगो के फ़क्ऱ दीन की कमज़ोरी, अक़्ल की परेशानी और लोगों की नफ़रत का सबब बन जाता है।
319- एक शख़्स ने एक मुश्किल मसला दरयाफ़्त कर लिया तो आपने फ़रमाया समझने के लिये दरयाफ़्त करो उलझने के लिये नहीं के जाहिल भी अगर सीखना चाहे तो वह आलिम जैसा है और आलिम भी अगर सिर्फ़ उलझना चाहे तो वह जाहिल जैसा है।
320- अब्दुल्लाह बिन अब्बास ने आपके नज़रिये के खि़लाफ़ आपको मशविरा दे दिया तो फ़रमाया के तुम्हारा काम मशविरा देना है। इसके बाद राय मेरी है लेहाज़ा अगर मैं तुम्हारे खि़लाफ़ भी राय क़ायम कर लूँ तो तुम्हारा फ़र्ज़ है के मेरी इताअत करो।
321- रिवायत में वारिद हुआ है के जब आप सिफ़्फ़ीन से वापसी पर कूफ़े वारिद हुए तो आपका गुज़र क़बीलए शबाम के पास से हुआ जहाँ औरें सिफ़्फ़ीन के मक़तूलीन पर गिरया कर रही थीं, और इतने में हर्ब बिन शरजील शबामी जो सरदारे क़बीला थे हज़रत की खि़दमत में हाज़िर हो गए तो आपने फ़रमाया के तुम्हारी औरतों पर तुम्हारा बस नहीं चलता है जो मैं यह आवाज़ें सुन रहा हूँ और तुम उन्हें इस तरह की फ़रयाद से मना क्यों नहीं करते हो। यह कहकर हज़रत (अ0) आगे बढ़ गए तो हर्ब भी आपकी रकाब में साथ हो लिये, आपने फ़रमाया के जाओ वापस जाओ। हाकिम के साथ इस तरह पैदल चलना हाकिम के हक़ में फ़ित्ना है और मोमिन के हक़ में बाएसे ज़िल्लत है।
(((इस्लामी रिवायात की बिना पर मुर्दा पर गिरया करना या बलन्द आवाज़ से गिरया करना कोई ममनूअ और हराम अमल नहीं है बल्कि गिरया सरकारे दो आलम (स0) और अम्बियाए कराम (अ0) की सीरत में दाखि़ल है लेहाज़ा हज़रत की मोमानेअत का मफ़हूम यह हो सकता है के इस तरह गिरया नहीं होना चाहिये जिससे दुश्मन को कमज़ोरी और परेशानी का एहसास हो जाए और उसके हौसले बलन्द हो जाएं या गिरया में ऐसे अल्फ़ाज़ और अन्दाज़ शामिल हो जाएं जो मर्ज़ीए परवरदिगार के खि़लाफ़ हों और जिनकी बिना पर इन्सान अज़ाबे आख़ेरत का मुस्तहक़ हो जाए।
हाकिम के लिये फ़ित्ना का मक़सद यह है के अगर हाकिम के मग़रूर व मुतकब्बिर हो जाने और महकूम के मुब्तिलाए ज़िल्लत हो जाने का ख़तरा है तो यह अन्दाज़ यक़ीनन सही नहीं है लेकिन अगर हाकिम इस तरह के अहमक़ाना जज़्बात से बालातर है और महकूम भी सिर्फ़ उसके इल्म व तक़वा का एहतेराम करना चाहता है तो कोई हर्ज नहीं है बल्कि आलिम और मुत्तक़ी इन्सान का एहतेराम ऐने इस्लाम और ऐने दियानतदारी है।)))
322- नहरवान के मौक़े पर आपका गुज़र ख़वारिज के मक़तूलीन के पास से हुआ तो फ़रमाया के तुम्हारे मुक़द्दर में सिर्फ़ तबाही और बरबादी है जिसने तुम्हें वरग़लाया था उसने धोका ही दिया था। लोगों ने दरयाफ़्त किया के यह धोका उन्हें किसने दिया है? फ़रमाया गुमराहकुन शैतान और नफ़्से अम्मारा ने, उसने तमन्नाओं में उलझा दिया और गुनाहों के रास्ते खोल दिये और उनसे ग़लबे का वादा कर लिया जिसके नतीजे में उन्हें जहन्नुम में झोंक दिया।
323- तन्हाई में भी ख़ुदा की नाफ़रमानी से डरो के जो देखने वाला है वही फ़ैसला करने वाला है।
(((जब यह तय है के रोज़े क़यामत फ़ैसला करने वाला और अज़ाब देने वाला परवरदिगार है तो मख़लूक़ात की निगाहों से छिप कर गुनाह करने का फ़ायदा ही क्या है। फ़ायदा तो उसी वक़्त हो सकता है जब ख़ालिक़ की निगाह से छिप सके या फ़ैसला मालिक के अलावा किसी और के इख़्तेयार में हो जिसका कोई इमकान नहीं है। लेहाज़ा आफ़ियत इसी में है के इन्सान हर हाल में गुनाह से परहेज़ करे और अलल एलान या ख़ुफ़िया तरीक़े से गुनाह का इरादा न करे।)))
324- जब आपको मोहम्मब बिन अबीबक्र की शहादत की ख़बर मिली तो फ़रमाया के मेरा ग़म मोहम्मद पर उतना ही है जितनी दुश्मन की ख़ुशी है। फ़र्क़ सिर्फ़ यह है के दुश्मन का एक दुश्मन कम हुआ है और मेरा एक दोस्त कम हो गया है।
325- जिस उम्र के बाद परवरदिगार औलादे आदम (अ0) के किसी उज़्र को क़ुबूल नहीं करता है। वह साठ साल है।
326- जिस पर गुनाह ग़लबा हासिल कर ले वह ग़ालिब नहीं है के शर के ज़रिये ग़लबा पाने वाला भी मग़लूब ही होता है।
327- परवरदिगार ने मालदारों के अमवाल में ग़रीबों का रिज़्क़ क़रार दिया है लेहाज़ा जब भी कोई फ़क़ीर भूका होगा तो उसका मतलब यह है के ग़नी ने दौलत को समेट लिया है और परवरदिगार रोज़े क़यामत इसका सवाल ज़रूर करने वाला है।
328- उज़्र व माज़ेरत से बेनियाज़ी सच्चे उज्ऱ पेश करने से भी ज़्यादा अज़ीज़तर है।
((( माज़ेरत करने में एक तरह की निदामत और ज़िल्लत का एहसास बहरहाल होता है लेहाज़ा इन्सान के लिये अफ़ज़ल और बेहतर यही है के अपने को इस निदामत से बे नियाज़ बना ले और कोई ऐसा काम न करे जिसके लिये बाद में माज़ेरत करना पड़े।)))
329- ख़ुदा का सबसे मुख़्तसर हक़ यह है के उसकी नेमत को उसकी मासियत का ज़रिया न बनाओ।
(((दुनिया में कोई करीम से करीम और मेहरबान से मेहरबान इन्सान भी इस बात को गवारा नहीं कर सकता है के वह किसी के साथ मेहरबानी करे और दूसरा इन्सान उसी मेहरबानी को उसकी नाफ़रमानी का ज़रिया बना ले और जब मख़लूक़ात के बारे में इस तरह की एहसान फ़रामोशी रवा नहीं है तो ख़ालिक़ का हक़ इन्सान पर यक़ीनन मख़लूक़ात से ज़्यादा होता है और हर शख़्स को इस करामत व शराफ़त का ख़याल रखना चाहिये के जब इसका सारा वजूद नेमत परवरदिगार है तो इस वजूद का कोई एक हिस्सा भी परवरदिगार की मासियत और मुख़ालेफ़त में सर्फ़ नहीं किया जा सकता है।)))
330- परवरदिगार ने होशमन्दों के लिये इताअत का वह मौक़ा बेहतरीन क़रार दिया है जब काहिल लोग कोताही में मुब्तिला हो जाते हैं (मसलन नमाज़े शब)।
331- बादशाह रूए ज़मीन पर अल्लाह का पासबान होता है।
332- मोमिन के चेहरे पर बशाशत होती है और दिल में रंज व अन्दोह। उसका सीना कुशादा होता है और मुतवाज़ोह, बलन्दी को नापसन्द करता है और शोहरत से नफ़रत करता है। उसका ग़म तवील होता है और हिम्मत बड़ी होती है और ख़ामोशी ज़्यादा होती है और वक़्त मशग़ूल होता है। वह शुक्र करने वाला, सब्र करने वाला, फ़िक्र में डूबा हुआ, दस्ते तलब दराज़ करने में बख़ील, ख़ुश एख़लाक़ और नर्म मिज़ाज होता है। उसका नफ़्स पत्थर से ज़्यादा सख़्त होता है और वह ख़ुद ग़ुलाम से ज़्यादा मुतवाज़ेह होता है।
((( इस मुक़ाम पर मोमिन के चैदा सिफ़ात का तज़किरा कर दिया गया है ताके हर शख़्स उस आईने में अपना चेहरा देख सके और अपने ईमान का फै़सला कर सके (1) वह अन्दर से महज़ून होता है लेकिन बाहर से बहरहाल हश्शाश बश्शाश रहता है। (2) उसका सीना और दिल कुशादा होता है। (3) उसके नफ़्स में ग़ुरूर व तकब्बुर नहीं होता है। (4) वह बलन्दी को नापसन्द करता है और शोहरत से कोई दिलचस्पी नहीं रखता है। (5) ख़ौफ़े ख़ुदा से रन्जीदा रहता है (6) उसकी हिम्मत हमेशा बलन्द रहती है। (7) हमेशा ख़ामोश रहता है और अपने फ़राएज़ के बारे में सोचता रहता है। (8) अपने शब व रोज़ को फ़राएज़ की अदायगी में मशग़ूल रखता है। (9) मुसीबतों में सब्र और नेमतों पर शुक्रे परवरदिगार करता है। (10) फ़िक्रे क़यामत व हिसाब व किताब में ग़र्क़ रहता है। (11) लोगों पर अपनी ज़रूरियात के इज़हार में बुख़ल करता है। (12) मिज़ाज और तबीयत के एतबार से बिल्कुल नर्म होता है (13) हक़ के मामले में पत्थर से ज़्यादा सख़्त होता है। (14) ख़ुज़ूअ व ख़ुशूअ में ग़ुलामों जैसी कैफ़ियत का हामिल होता है।)))
333- अगर बन्दए ख़ुदा मौत और उसके अन्जाम को देख ले तो उम्मीदवार उसके फ़रेब से नफ़रत करने लगे।
334- हर शख़्स के उसके माल में दो तरह के शरीक होते हैं एक वारिस और एक हवादिस।
(((यह इशारा है के इन्सान को एक तीसरे शरीक की तरफ़ से ग़ाफ़िल नहीं होना चाहिये और वह है फ़क़ीर और मिस्कीन के मज़कूरा दोनों शरीक अपना हक़ ख़ुद ले लेते हैं और तीसरे शरीक को उसका हक़ देना पड़ता है जो इम्तेहाने नफ़्स भी है और वसीलए अज्र व सवाब भी है।)))
335- जिससे सवाल किया जाता है वह उस वक़्त तक आज़ाद रहता है जब तक वादा न कर ले।
336- बग़ैर अमल के दूसरों को दावत देने वाला ऐसा ही होता है जैसे बग़ैर चिल्लए कमान के तीर चलाने वाला।
337- इल्म की दो क़िस्में हैं- एक वह होता है जो तबीअत में ढल जाता है और एक वह होता है जो सिर्फ़ सुन लिया जाता है और सुना सुनाया उस वक़्त तक काम नहीं आता है जब तक मिज़ाज का जुज़अ न बन जाए।
(((दूसरा मफ़हूम यह भी हो सकता है के एक इल्म इन्सान की फ़ितरत में कर दिया गया है और एक इल्म बाहर से हासिल होता है और खुली हुई बात है के जब तक फ़ितरत के अन्दर वुजदान सलीम और उसकी सलाहियतें न हों बाहर के इल्म का कोई फ़ायदा नहीं होता है और उससे इस्तेफ़ादा अन्दर की सलाहियत ही पर मौक़ूफ़ है।)))
338- राय की दुरूस्ती दौलते इक़बाल से वाबस्ता है- इसी के साथ आती है और इसी के साथ चली जाती है (लेकिन दौलत भी मुफ़्त नहीं आती है इसके लिये भी सही राय की ज़रूरत होती है)।
(((यानी दुनिया का मेयार सवाब व ख़ताया है के जिसके पास दौलत की फ़रावानी देख लेते हैं समझते हैं के उसके पास यक़ीनन फ़िक्रे सलीम भी है वरना इस क़द्र दौलत किस तरह हासिल कर सकता था। इसके बाद जब दौलत चली जाती है तो अन्दाज़ा करते हैं के यक़ीनन उसकी राय में कमज़ोरी पैदा हो गई है वरना इस तरह की ग़ुर्बत से किस तरह दो-चार हो सकता था।)))
339- पाक दामानी फ़क़ीर की ज़ीनत है और शुक्र मालदारी की ज़ीनत है।
(((हक़ीक़ते अम्र यह है के न फ़क़ीरी कोई ऐब है और न मालदारी कोई हुस्न और हुनर, ऐब व हुनर की दुनिया इससे ज़रा मावेरा है और वह यह है के इन्सान फ़क़ीरी में इफ़्फ़त से काम ले और किसी के सामने दस्ते सवाल दराज़ न करे और मालदारी में शुक्रे परवरदिगार अदा करे और किसी तरह के ग़ुरूर व तकब्बुर में मुब्तिला न हो जाए।)))
340- मज़लूम के हक़ में ज़ुल्म के दिन से ज़्यादा शदीद ज़ालिम के हक़ में इन्साफ़ का दिन होता है।
341- लोगों के हाथ की दौलत से मायूस हो जाना ही बेहतरीन मालदारी है (के इन्सान सिर्फ़ ख़ुदा से लौ लगाता है)।
(((यह इज़्ज़ते नफ़्स का बेहतरीन मुज़ाहेरा है जहाँ इन्सान ग़ुरबत के बावजूद दूसरों की दौलत की तरफ़ मुझकर नहीं देखता है और हमेशा इस नुक्ते को निगाह में रखता है के फ़क्ऱ व फ़ाक़ा से सिर्फ़ जिस्म कमज़ोर होता है लेकिन हाथ फैला देने से नफ़्स में ज़िल्लत और हिक़ारत का एहसास पैदा होता है जो जिस्म के फ़ाक़े से यक़ीनन बदतर और शदीदतर है। )))
342- बातें सब महफ़ूज़ रहती हैं और दिलों के राज़ों का इम्तेहान होने वाला है। हर नफ़्स अपने आमाल के हाथों गरो है और लोगों के जिस्म में नुक़्स और अक़्लों में कमज़ोरी आने वाली है मगर यह के अल्लाह ही बचा ले। उनमें के साएल उलझाने वाले हैं और जो अब देने वाले बिला वजह ज़हमत कर रहे हैं क़रीब है के उनका बेहतरीन राय वाला भी सिर्फ़ ख़ुशनूदी या ग़ज़ब के तसव्वुर से अपनी राय से पलटा दिया जाय और जो इन्तेहाई मज़बूत अक़्ल व इरादे वाला है उसको भी एक नज़र मुतास्सिर कर दे या एक कलमा उसमें इन्क़ेलाब पैदा कर दे।
343- अय्योहन्नास! अल्लाह से डरो के कितने ही उम्मीदवार हैं जिनकी उम्मीदें पूरी नहीं होती हैं और कितने ही घर बनाने वाले हैं जिन्हें रहना नसीब नहीं होता है कितने माल जमा करने वाले हैं जो छोड़ कर चले जाते हैं और बहुत मुमकिन है के बातिल से जमा किया हो या किसी हक़ से इन्कार कर दिया हो या हराम से हासिल किया हो और गुनाहों का बोझ लाद लिया हो तो उसका वबाल लेकर वापस हो और इसी आलम में परवरदिगार के हुज़ूर हाज़िर हो जाए जहां सिर्फ़ रन्ज और अफ़सोस हो और दुनिया व आख़ेरत दोनों का ख़सारा हो जो दरहक़ीक़त खुला हुआ ख़सारा है।
344- गुनाहों तक रसाई का न होना भी एक तरह की पाकदामनी है।
(((इसमें कोई शक नहीं है के गुनाहों के बारे में शरीअत का मुतालेबा सिर्फ़ यह है के इन्सान उनसे इज्तेनाब करे और उनमें मुब्तिला न होने पाए चाहे उसका सबब उसका तक़द्दुस हो या मजबूरी। लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं है के अपने इख़्तेयार से गुनाहों का तर्क कर देने वाला मुस्हक़े अज्र व सवाब भी हो सकता है और मजबूरन तर्क कर देने वाला किसी अज्र व सवाब का हक़दार नहीं हो सकता है)))
345- तुम्हारी आबरू महफ़ूज़ है और सवाल उसे मिटा देता है लेहाज़ा यह देखते रहो के किसके सामने हाथ फ़ैला रहे हो और आबरू का सौदा कर रहे हो।
346- इस्तेहक़ाक़ से ज़्यादा तारीफ़ करना ख़ुशामद है और इस्तेहक़ाक़ से कम तारीफ़ करना आजिज़ी है या हसद।
347- सबसे सख़्त गुनाह वह है जिसे गुनाहगार हल्का क़रार दे दे।
(((ग़ैर मासूम इन्सान की ज़िन्दगी के बारे में गुनाहों के इमकानात तो हमा वक़्त रहते हैं लेकिन इन्सान की शराफ़ते नफ़्स यह है के जब कोई गुनाह सरज़द हो जाए तो उसे गुनाह तसव्वुर करे और इसकी तलाफ़ी की फ़िक्र करे वरना अगर उसे ख़फ़ीफ़ और हलका तसव्वुर कर लिया तो यह दूसरा गुनाह होगा जो पहले गुनाह से बदतर होगा के पहला गुनाह नफ़्स की कमज़ोरी से पैदा हुआ था और यह ईमान और अक़ीदे की कमज़ोरी से पैदा हुआ है।)))
348- जो अपने ऐब पर निगाह रखता है वह दूसरों के ऐब से ग़ाफ़िल हो जाता है और जो रिज़्क़े ख़ुदा पर राज़ी रहता है वह किसी चीज़ के हाथ से निकल जाने पर रन्जीदा नहीं होता है। जो बग़ावत की तलवार खींचता है ख़ुद उसी से मारा जाता है और जो अहम उमूर को ज़बरदस्ती अन्जाम देना चाहता है वह तबाह हो जाता है। लहरों में फान्द पड़ने वाला डूब जाता है और ग़लत जगहों पर दाखि़ल होने वाला बदनाम हो जाता है। जिसकी बातें ज़्यादा होती हैं उसकी ग़लतियाँ भी ज़्यादा होती हैं। जिसकी ग़लतियां ज़्यादा होती हैं उसकी हया कम हो जाती है और जिसकी हया कम हो जाती है उसका तक़वा भी कम हो जाता है और जिसका तक़वा कम हो जाता है उसका दिल मुर्दा हो जाता है और जिसका दिल मुर्दा हो जाता है वह जहन्नुम में दाखि़ल हो जाता है। जो लोगों के ऐब को देख कर नागवारी का इज़हार करे और फिर उसी ऐब को अपने लिये पसन्द कर ले तो उसी को अहमक़ कहा जाता है। क़नाअत एक ऐसा सरमाया है जो ख़त्म होने वाला नहीं है। जो मौत को बराबर याद करता रहता है वह दुनिया के मुख़्तसर हिस्से पर भी राज़ी हो जाता है और जिसे यह मालूम होता है के कलाम भी अमल का एक हिस्सा है वह ज़रूरत से ज़्यादा कलाम नहीं करता है।
349- लोगों में ज़ालिम की अलामात होती हैं अपने से बालातर पर मासियत करने के ज़रिये ज़ुल्म करता है। अपने से कमतर पर ग़लबा व क़हर के ज़रिये ज़ुल्म करता है और फ़िर ज़ालिम क़ौम की हिमायत करता है।
((( यह इस अम्र की तरफ़ इशारा है के सिर्फ़ ज़ुल्म करना ही ज़ुल्म नहीं है बल्कि ज़ालिम की हिमायत भी एक तरह का ज़ुल्म है लेहाज़ा इन्सान का फ़र्ज़ है के इस ज़ुल्म से भी महफ़ूज़ रहे और मुकम्मल आदिलाना ज़िन्दगी गुज़ारे और हर शै को उसी मुक़ाम पर रखे जो उसका महल और मौक़ा है।)))
350- सख़्तियों की इन्तेहा ही पर कशाइशे हाल पैदा होती है और बलाओं के हलक़ों की तंगी ही के मौक़े पर आसाइश पैदा होती है।
(((मक़सद यह है के इन्सान को सख़्ितयों और तंगियों में मायूस नहीं होना चाहिये बल्कि हौसलों को बलन्द रखना चाहिये और सरगर्म अमल रहना चाहिये के क़ुराने करीम ने सहूलत को तंगी और ज़हमत के बाद नहीं रखा है बल्कि उसी के साथ रखा है।)))
351- अपने बाज़ असहाब से खि़ताब करके फ़रमाया - ज़्यादा हिस्सा बीवी बच्चों की फ़िक्र में मत रहा करो और अगर यह अल्लाह के दोस्त हैं तो अल्लाह इन्हें बरबाद नहीं होने देगा और अगर उसके दुश्मन हैं तो तुम दुश्मनाने ख़ुदा के बारे में क्यों फ़िक्रमन्द हो। (मक़सद यह है के इन्सान अपने दाएरे से बाहर निकल कर समाज और मुआशरे के बारे में भी फ़िक्र करे। सिर्फ कुएं का मेंढक बनकर न रह जाए)
(((इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं है के इन्सान अहल व अयाल की तरफ़ से यकसर ग़ाफ़िल हो जाए और उन्हें परवरदिगार के रहम व करम पर छोड़ दे, परवरदिगार का रहम व करम माँ-बाप से यक़ीनन ज़्यादा है लेकिन  माँ-बाप की अपनी भी एक ज़िम्मेदारी है इसका मक़सद सिर्फ़ यह है के बक़द्रे वाजिब खि़दमत करके बाक़ी मामलात को परवरदिगार के हवाले कर दे और उनकी तरफ़ सरापा तवज्जो बनकर परवरदिगार से ग़ाफ़िल न हो जाए।)))
352- बदतरीन ऐब यह है के इन्सान किसी ऐब को बुरा कहे और फिर उसमें वही ऐब पाया जाता हो।
353- हज़रत के सामने एक शख़्स ने एक शख़्स को फ़रज़न्द की मुबारकबद देते हुए कहा के शहसवार मुबारक हो, तो आपने फ़रमाया के यह मत कहो बल्कि ह कहो के तुमने देने वाले का शुक्रिया अदा किया है लेहाज़ा तुम्हें यह तोहफ़ा मुबारक हो। ख़ुदा करे के यह मन्ज़िले कमाल तक पहुंचेे और तुम्हें इसकी नेकी नसीब हो।
354- आपके अमाल (आमिलों) में से एक शख़्स ने अज़ीम इमारत तामीर कर ली तो आपने फ़रमाया के चान्दी के सिक्कों ने सर निकाल लिया है। यक़ीनन तामीर तुम्हारी मालदारी की ग़माज़ी करती है।
355- किसी ने आपसे सवाल किया के अगर किसी शख़्स के घर का दरवाज़ा बन्द कर दिया जाए और उसे तन्हा छोड़ दिया जाए तो उसका रिज़्क़ कहाँ से आएगा? फ़रमाया के जहाँ से उसकी मौत आएगी।

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