55-आपका इरषादे गिरामी
(जब आपके असहाब ने यह इज़हार किया के अहले सिफ़फ़ीन से जेहाद की इजाज़त में ताख़ीर से काम ले रहे हैं)
(जब आपके असहाब ने यह इज़हार किया के अहले सिफ़फ़ीन से जेहाद की इजाज़त में ताख़ीर से काम ले रहे हैं)
तुम्हारा सवाल के क्या यह ताख़ीर मौत की नागवारी से है तो ख़ुदा की क़सम मुझे मौत की कोई परवाह नहीं है के मैं इसके पास वारिद हो जाऊँ या वह मेरी तरफ़ निकलकर आ जाए। और तुम्हारा यह ख़याल के मुझे अहले “ााम के बातिल के बारे में कोई “ाक है, तो ख़ुदा गवाह है के मैंने एक दिन भी जंग को नहीं टाला है मगर इस ख़याल से के “ाायद कोई गिरोह मुझ से मुलहक़ हो जाए और हिदायत पा जाए और मेरी रौषनी में अपनी कमज़ोर आंखों का इलाज कर ले के यह बात मेरे नज़दीक उससे कहीं ज़्यादा बेहतर है के मैं उसकी गुमराही की बिना पर उसे क़त्ल कर दूँ अगरचे इस क़त्ल का गुनाह उसी के ज़िम्मे होगा।
56- आपका इरषादे गिरामी(जिसमें असहाबे रसूल (स0) को याद किया गया है उस वक़्त जब सिफ़फ़ीन के मौक़े पर आपने लोगों को सुल का हुक्म दिया था)
हम रसूले अकरम (स0) के साथ अपने ख़ानदान के बुज़ुर्ग, बच्चे, भाई बन्द और चचाओं को भी क़त्ल कर दिया करते थे और इससे हमारे ईमान और जज़्बए तसलीम में इज़ाफ़ा ही होता था और हम बराबर सीधे रास्ते पर बढ़ते ही जा रहे थे और मुसीबतों की सख़्ितयों पर सब्र ही करते जा रहे थे और दुष्मन से जेहाद में कोषिषें ही करते जा रहे थे। हमारा सिपाही दुष्मन के सिपाही से इस तरह मुक़ाबला करता था जिस तरह मर्दों का मुक़ाबला होता है के एक दूसरे की जान के दरपै हो जाएं और हर एक को यही फ़िक्र हो के दूसरे को मौत का जाम पिला दें। फिर कभी हम दुष्मन को मार लेते थे और कभी दुष्मन को हम पर ग़लबा हो जाता था। इसके बाद जब ख़ुदा ने हमारी सिदाक़त को आज़मा लिया तो हमारे दुष्मन पर ज़िल्लत नाज़िल कर दी और हमारे ऊपर नुसरत का नुज़ूल फ़रमा दिया यहाँतक के इस्लाम सीना टेक कर अपनी जगह जम गया और अपनी मन्ज़िल पर क़ायम हो गया।
मेरी जान की क़सम अगर हमारा किरदार भी तुम्हीं जैसा होता तो न दीन का कोई सुतून क़ायम होता और न ईमान की कोई “ााख़ हरी होती। ख़ुदा की क़सम तुम अपने करतूतों से दूध के बदले ख़ून दुहोगे और आखि़र में पछताओगे।
(((हज़रत मोहम्मद बिन अबीबक्र की “ाहादत के बाद माविया ने अब्दुल्लाह बिन आमिर हिज़्री को बसरा में दोबारा फ़साद फ़ैलाने के लिये भेज दिया। वहां हज़रत के वाली इब्ने अब्बास थे और वह मोहम्मद की ताज़ियत के लिये कूफ़े आ गये थे। ज़ियाद बिन अबीदान के नाएब थे। इन्होंने हज़रत को इत्तेलात दी, आपने बसरा के बनी तमीम मा उस्मानी रूझान देखकर कूफ़े के बनी तमीम को मुक़ाबले पर भेजना चाहा लेकिन इन लोगों ने बिरादरी से जंग करने से इन्कार कर दिया तो हज़रत ने अपने दौरे क़दीम का हवाला दिया के अगर रसूले अकरम (स0) के साथ हम लोग भी क़बायली ताअस्सुब का षिकार हो गए होते तो आज इस्लाम का नामो निषान भी न होता, इस्लाम हक़ व सिदाक़त का मज़हब है इसमें क़ौमी और क़बायली रूझानात की कोई गुन्जाइष नहीं है।
यह एक अज़ीम हक़ीक़त का एलान है के परवरदिगार अपने बन्दों की बहरहाल मदद करता है। उसने साफ़ कह दिया के ‘‘कान हक़्क़ा अलैना नसरूल मोमेनीन’’ (मोमेनीन की मदद हमारी ज़िम्मेदारी है) ‘‘इन्नल्लाहा मअस्साबेरीन’’ (अल्लाह सब्र करने वालों के साथ है) लेकिन इस सिलसिले में इस हक़ीक़त को बहरहाल समझ लेना चाहिये के यह नुसरत ईमान के इज़हार के बाद और यह मायते सब्र के बाद सामने आती है। जब तक इन्सान अपने ईमान व सब्र का सूबूत नहीं दे देता है, ख़ुदाई इमदाद का नुज़ूल नहीं होता है। ‘‘अन तनसरूल्लाह यनसुरकुम’’ (अगर तुम अल्लाह की मदद करोगे तो अल्लाह तुम्हारी मदद करेगा) नुसरते इलाही तोहफ़ा नहीं है मुजाहेदात का इनआम है, पहले मुजाहिदे नफ़्स, इसके बाद इनआम।)))
57- आपका इरषादे गिरामी(एक क़ाबिले मज़म्मत “ाख़्स के बारे में)
आगाह हो जाओ के अनक़रीब तुम पर एक “ाख़्स मुसल्लत होगा जिसका हलक़ कुषादा और पेट बड़ा होगा। जो पा जाएगा खा जाएगा और जो न पाएगा उसकी जुस्तजू में रहेगा। तुम्हारी ज़िम्मेदारी होगी के उसे क़त्ल कर दो मगर तुम हरगिज़ क़त्ल न करोगे। ख़ैर, वह अनक़रीब तुम्हें, मुझे गालियाँ देने और मुझसे बेज़ारी करने का भी हुक्म देगा। तो अगर गालियों की बात हो तो मुझे बुरा भला कह लेना के यह मेरे लिये पाकीज़गी का सामान है और तुम्हारे लिये दुष्मन से निजात का, लेकिन ख़बरदार मुझसे बराएत न करना के मैं फ़ितरते इस्लाम पर पैदा हूआ हूँ और मैंने ईमान और हिजरत दोनों में सबक़त की है।
58- आपका इरषादे गिरामी
(जिसका मुख़ातिब उन ख़वारिज को बनाया गया है जो तहकीम से किनाराकष हो गए और ‘‘ला हुक्म इलल्लाह’’ का नारा लगाने लगे)
ख़ुदा करे तुम पर सख़्त आन्धियाँ आएं और कोई तुम्हारे हाल का इस्लाह करने वाला न रह जाए। क्या मैं परवरदिगार पर ईमान लाने और रसूले अकरम (स0) के साथ जेहाद करने के बाद अपने बारे में कुफ्ऱ का ऐलान कर दूँ। ऐसा करूंगा तो मैं गुमराह हो जाऊँगा और हिदायत याफ़ता लोगों में न रह जाउंगा। जाओ पलट जाओ अपनी बदतरीन मंज़िल की तरफ़ और वापस चले जाओ अपने निषानाते क़दम पर। मगर आगाह रहो के मेरे बाद तुम्हें हमागीर ज़िल्लत और काटने वाली तलवार का सामना करना होगा और इस तरीक़ए कार का मुक़ाबला करना होगा जिसे ज़ालिम तुम्हारे बारे में अपने सुन्नत बना लेँ यानी हर चीज़ को अपने लिये मख़सूस कर लेना।
सय्यद रज़ी- हज़रत का इरषाद ‘‘ला बक़ी मिनकुम आबरुन’’ तीन तरीक़ों से नक़्ल किया गया है-
आबरुन- वह “ाख़्स जो दरख़्ते ख़ुरमा को कांट छाट कर उसकी इसलाह करता है।
आसरुन- रिवायत करने वाला यानी तुम्हारी ख़बर देने वाला कोई न रह जाएगा और यही ज़्यादा मुनासिब मालूम होता है।
आबज़ुन- कूदने वाला या हलाक होने वाला के मज़ीद हलाकत के लिये भी कोई न रह जाएगा।
59- आपका इरषादे गिरामी(आपने उस वक़्त इरषाद फ़रमाया जब आपने ख़वारिज से जंग का अज़्म कर लिया और नहरवान के पुल को पार कर लिया)
याद रखो! दुष्मनों की क़त्लगाह दरिया के उस तरफ़ है। ख़ुदा की क़सम न उनमें से दस बाक़ी बचेंगे और न तुम्हारे दस हलाक हो सकेंगे।
सय्यद रज़ी - नुत्फ़े से मुराद नहर का “ाफ़ाफ़ पानी है जो बेहतरीन कनाया है पानी के बारे में चाहे इसकी मिक़दार कितनी ही ज़्यादा क्यों न हो।
(((जब अमीरूल मोमेनीन (अ0) को यह ख़बर दी गई के ख़वारिज ने सारे मुल्क में फ़साद फ़ैलाना “ाुरू कर दिया है, जनाबे अब्दुल्लाह बिन ख़बाब बिन इलारत को उनके घर की औरतों समेत क़त्ल कर दिया है और लोगों में मुसलसल दहषत फ़ैला रहे हैं तो आपने एक “ाख़्स को समझाने के लिये भेजा, इन ज़ालिमों ने उसे भी क़त्ल कर दिया। इसके बाद जब हज़रत अब्दुल्लाह बिन ख़बाब के क़ातिलों को हवाले करने का मुतालबा किया तो साफ़ कह दिया के हम सब क़ातिल हैं। इसके बाद हज़रत ने बनफ़्से नफ़ीस तौबा की दावत दी लेकिन उन लोगों ने उसे भी ठुकरा दिया। आखि़र एक दिन वह आ गया जब लोग एक लाष को लेकर आए और सवाल किया के सरकार अब फ़रमाएं अब क्या हुक्म है? तो आपने नारा-ए-तकबीर बलन्द करके जेहाद का हुक्म दे दिया और परवरदिगार के दिये हुए इल्मे ग़ैब की बिना पर अन्जामकार से भी बाख़बर कर दिया जो बक़ौल इब्नुल हदीद सद-फ़ीसद सही साबित हुआ और ख़वारिज के सिर्फ़ नौ अफ़राद बचे और हज़रत (अ0) के साथियों में सिर्र्फ़ आठ अफ़राद “ाहीद हुए।)))
60- आपने फ़रमाया(उस वक़्त जब ख़वारिज के क़त्ल के बाद लोगों ने कहा के अब तो क़ौम का ख़ात्मा हो चुका है)
61- आपने फ़रमाया
ख़बरदार मेरे बाद ख़ुरूज करने वालों से जंग न करना के हक़ की तलब में निकलकर बहक जाने वाला उसका जैसा नहीं होता है जो बातिल की तलाष में निकले और हासिल भी कर ले।
सय्यद रज़ी- आखि़री जुमले से मुराद माविया और इसके असहाब हैं।
62- आपका इरषाद गिरामी(जब आपको अचानक क़त्ल से डराया गया)
याद रखो मेरे लिये ख़ुदा की तरफ़ से एक मज़बूत व मुस्तहकम सिपर है। इसके बाद जब मेरा दिन आ जाएगा तो यह सिपर मुझसे अलग हो जाएगी और मुझे मौत के हवाले कर देगी। उस वक़्त न तीर ख़ता करेगा और न ज़ख़्म मुन्दमिल हो सकेगा।
63- आपके ख़ुत्बे का एक हिस्सा(जिसमें दुनिया के फ़ित्नों से डराया गया है)
आगाह हो जाओ के यह दुनिया ऐसा घर है जिससे सलामती का सामान इसी के अन्दर से किया जा सकता है और कोई ऐसी “ाय वसीलए निजात नहीं हो सकती है जो दुनिया ही के लिये हो। लोग इस दुनिया के ज़रिये आज़माए जाते हैं। जो लोग दुनिया का सामान दुनिया ही के लिये हासिल करते हैं वह इसे छोड़कर चले जाते हैं और फिर हिसाब भी देना होता है और जो लोग यहाँ से वहाँ के लिये हासिल करते हैं वह वहाँ जाकर पा लेते हैं और इसी में मुक़ीम हो जाते हैं। यह दुनिया दरहक़ीक़त साहेबाने अक़्ल की नज़र में एक साया जैसी है जो देखते देखते सिमट जाता है और फैलते फैलते कम हो जाता है।
(((इन्सान के क़दम मौत की तरफ़ बिला इख़्तेयार बढ़ते जा रहे हैं और उसे इस अम्र का एहसास भी नहीं होता है। नतीजा यह होता है के एक दिन मौत के मुँह में चला जाता है और दाएमी ख़सारा और अज़ाब में मुब्तिला हो जाता है लेहाज़ा तक़ाज़ाए अक़्ल व दानिष यही है के आमाल को साथ लेकर आगे बढ़ेगा ताके जब मौत का सामना हो तो आमाल का सहारा रहे और अज़ाबे अलीम से निजात हासिल करने का वसीला हाथ में रहे। )))
64- आपके ख़ुत्बे का एक हिस्सा(नेक आमाल की तरफ़ सबक़त के बारे में)
बन्दगाने ख़ुदा अल्लाह से डरो और आमाल के साथ अजल की तरफ़ सबक़त करो। इस दुनिया के फ़ानी माल के ज़रिये बाक़ी रहने वाली आख़ेरत को ख़रीद लो और यहाँ से कूच कर जाओ के तुम्हें तेज़ी से ले जाया जा रहा है और मौत के लिये आमादा हो जाओ के वह तुम्हारे सरों पर मण्डला रही है। उस क़ौम जैसे हो जाओ जिसे पुकारा गया तो फ़ौरन होषियार हो गई। और उसने जान लिया के दुनिया इसकी मन्ज़िल नहीं है तो उसे आखि़रत से बदल लिया। इसलिये के परवरदिगार ने तुम्हें बेकार नहीं पैदा किया है और न महमिल छोड़ दिया है और याद रखो के तुम्हारे और जन्नत व जहन्नम के दरमियान इतना ही वक़्फ़ा है के मौत नाज़िल हो जाए और अन्जाम सामने आ जाए और वह मुद्दते हयात जिसे हर लम्हज़ कम कर रहा हो और हर साअत इसकी इमारत को मुनहदिम कर रही हो वह क़सीरूल मुद्दत ही समझने के लाएक़ है और वह मौत जिसे दिन व रात ढकेल कर आगे ला रहे हों उसे बहुत जल्द आने वाला ही ख़याल करना चाहिये और वह “ाख़्स जिसके सामने कामयाबी या नाकामी और बदबख़्ती आने वाली है उसे बेहतरीन सामान मुहैया ही करना चाहिये। लेहाज़ा दुनिया में रहकर दुनिया से ज़ादे राह हासिल कर लो जिससे कल अपने नफ़्स का तहफ़्फ़ुज़ कर सको। इसका रास्ता यह है के बन्दा अपने परवरदिगार से डरे। अपने नफ़्स से इख़लास रखे, तौबा की मक़दम करे, ख़्वाहिषात पर ग़लबा हासिल करे इसलिये के इसकी अजल इससे पोषीदा है और इसकी ख़्वाहिष इसे मुसलसल धोका देने वाली है और “ौतान इसके सर पर सवार है जो मासियतों को आरास्ता कर रहा है ताके इन्सान मुरतकब हो जाए और वौबा की उम्मीदें दिलाता है ताके इसमें ताख़ीर करे यहाँ तक के ख़फ़लत और बे ख़बरी के आलम में मौत इस पर हमलावर हो जाती है। हाए किस क़दर हसरत का मक़ाम है के इन्सान की अम्र ही इसके खि़लाफ़ हुज्जत बन जाए और इसका रोज़गार ही इसे बदबख़्ती तक पहुंचा दे। परवरदिगार से दुआ है के हमें और तुम्हें उन लोगों में क़रार दे जिन्हें नेमतें मग़रूर नहीं बनाती हैं और कोई मक़सद इताअते ख़ुदा में कोताही पर आमादा नहीं करता है और मौत के बाद इन पर निदामत और रंज व ग़म का नुज़ूल नहीं होता है।
65- आपके ख़ुत्बे का एक हिस्सा(जिसमें इल्मे इलाही के लतीफ़तरीन मुबाहिस की तरफ़ इषारा किया गया है)
तमाम तारीफ़ें उस ख़ुदा के लिये हैं जिसके सिफ़ात में तक़दम व ताख़र नहीं होता है के वह आखि़र होने से पहले और अव्वल रहा हो और बातिन बनने से पहले ज़ाहिर रहा हो। उसके अलावा जिसे भी वाहिद कहा जाता है उसकी वहदत क़िल्लत है और जिसे भी अज़ीज़ समझा जाता है उसकी इज़्ज़त ज़िल्लत है। इसके सामने हर क़ौमी ज़ईफ़ है और हर मालिक ममलूक है, हर आलिम मुतअल्लिम है और हर क़ादिर आजिज़ है, हर सुनने वाला लतीफ़ आवाज़ों के लिये बहरा है और ऊंची आवाज़ें भी इसे बहरा बना देती हैं और दूर की आवाज़ें भी इसकी हद से बाहर निकल जाती हैं और इसी तरह इसके अलावा हर देखने वाला मख़फ़ी रंग और हर लतीफ़ जिस्म को नहीं देख सकता है। इसके अलावा हर ज़ाहिर ग़ैरे बातिन है और हर बातिन ग़ैरे ज़ाहिर है इसने मख़लूक़ात को अपनी हुकूमत के इस्तेहकाम या ज़माने के नताएज के ख़ौफ़ से नहीं पैदा किया है।
न उसे किसी बराबर वाले ख़मलावर या साहबे कसरत “ारीक या टकराने वाले मद्दे मुक़ाबिल के मुक़ाबले में मदद लेना थी। यह सारी मख़लूक़ उसी की पैदा की हुई है और पाली हुई है और यह सारे बन्दे उसी के सामने सरे तस्लीम ख़म किये हुए हैं। उसने अश्याअ में हुलूल नहीं किया है के उसे किसी के अन्दर समाया हुआ कहा जाए और न इतना दूर हो गया है के अलग थलग ख़्याल किया जाए। मख़लूक़ात की खि़लक़त और मसनूआत की तदबीर उसे थका नहीं सकती है और न कोई तख़लीक़ उसे आजिज़ बना सकती है और न किसी क़ज़ा व क़द्र में उसे कोई “ाुबह पैदा हो सकता है।
उसका हर फ़ैसला मोहकम और इसका हर इल्म मुतअत्तन और इसका हर हुक्म मुस्तहकम है। नाराज़गी में भी उससे उम्मीद वाबस्ता की जाती है और नेमतों में भी इसका ख़ौफ़ लाहक़ रहता है।
(((यह उस नुक्ते की तरफ़ इषारा है के परवरदिगार के सिफ़ाते कमाल ऐन ज़ात हैं और ज़ात से अलग कोई “ौ नहीं हैं। वह इल्म की वजह से आलिम नहीं है बल्कि ऐने हक़ीक़ते इल्म है और क़ुदरत के ज़रिये क़ादिर नहीं है बल्के ऐने क़ुदरते कामेला है और जब यह सारे सिफ़ात ऐने ज़ात हैं तो इनमें तक़दम व ताख़र का कोई सवाल ही नहीं है वह जैसे लख़्तए अव्वल है उसी तरह लख़्तए आखि़र भी है और जिस अन्दाज़ से ज़ाहिर है उसी अन्दाज़ से बातिन भी है। इसकी ज़ाते अक़दस में किसी तरह का तख़ीर क़ाबिले तसव्वुर नहीं है। हद यह है के उसकी समाअत व बसारत भी मख़लूक़ात की समाअत व बसारत से बिलकुल अलग है। दुनिया का हर समीअ व बसीर किसी “ौ को देखता और सुनता है और किसी “ौ के देखने और सुनने से क़ासिर रहता है लेकिन परवरदिगार की ज़ाते अक़दस ऐसी नहीं है वह मख़फ़ी तरीन मनाज़िर को देख रहा है और लतीफ़तरीन आवाज़ों को सुन रहा है। वह ऐसा ज़ाहिर है जो बातिन नहीं है और ऐसा बातिन है जो किसी अक़्ल व फ़हम पर ज़ाहिर नहीं हो सकता।)))
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