Monday, March 21, 2011

Nahjul Balagha Hindi Khutba 66-72, नहजुल बलाग़ा हिन्दी ख़ुत्बा 66-72

66-आपका इरषादे गिरामी
(तालीमे जंग के बारे में)

मुसलमानों! ख़ौफ़े ख़ुदा को अपना ‘ाआर बनाओ, सुकून व वेक़ार की चादर ओढ़ लो, दाँतों को भींच लो के इससे तलवारें सरों से उचट जाती है, ज़िरह पोषी को मुकम्मल कर लो, तलवारों को न्याम से निकालने से पहले न्याम के अन्दर हरकत दे लो। दुष्मन को तिरछी नज़र से देखते रहो और नैज़ों से दोनों तरफ़ वार करते रहो। उसे अपनी तलवारों की बाढ़ पर रखो और तलवारों के हमले क़दम आगे बढ़ाकर करो और यह याद रखो के तुम परवरदिगार की निगाह में और रसूले अकरम (स0) के इब्न अम के साथ हो। दुष्मन पर मुसलसल हमले करते रहो और फ़रार से “ार्म करो के इसका आर नस्लों में रह जाता है और इसका अन्जाम जहन्नम होता है। अपने नफ़्स को हंसी ख़ुषी ख़ुदा के हवाले कर दो और मौत की तरफ़ नेहायत दरजए सुकून व इतमीनान से क़दम आगे बढ़ाओ। तुम्हारा निषाना एक दुष्मन का अज़ीम लष्कर और तनाबदारे ख़ेमा होना चाहिये के इसी के दस्त पर हमला करो के “ौतान इसी के एक गोषे में बैठा हुआ है। इसका हाल यह है के इसने एक क़दम हमले के लिये आगे बढ़ा रखा है और एक भागने के लिये पीछे कर रखा है लेहाज़ा तुम मज़बूती से अपने इरादे पर जमे रहो यहाँ तक के हक़ सुबह के उजाले की तरह वाज़ेह हो जाए और मुतमईन रहो के बलन्दी तुम्हारा हिस्सा है और अल्लाह तुम्हारे साथ है और वह तुम्हारे आमाल को ज़ाया नहीं कर सकता है।

(((इन तालीमात पर संजीदगी से ग़ौर किया जाए तो अन्दाज़ा होगा के एक मर्दे मुस्लिम के जेहाद का अन्दाज़ क्या होना चाहिये और उसे दुष्मन के मुक़ाबले में किस तरह जंग आज़मा होना चाहिये, इन तालीमात का मुख़्तसर ख़ुलासा यह है-
1. दिल के अन्दर ख़ौफ़े ख़ुदा हो। 2. बाहर सुकून व इत्मीनान का मुज़ाहिरा हो। 3. दाँतों को भींच लिया जाए। 4. आलाते जंग को मुकम्मल तौर पर साथ रखा जाए। 5. तलवार को न्याम के अन्दर हरकत दे ली जाए के बरवक़्त निकालने में ज़हमत न हो। 6- दुष्मन पर ग़ैत आलूद निगाह की जाए, 7- नेज़ों के हमले हर तरफ़ हों। 8- तलवार दुष्मन के सामने रहे। 9- तलवार दुष्मन तक न पहुँचे तो क़दम बढ़ाकर हमला करे। 10- फ़रार का इरादा न करे। 11- मौत की तरफ़ सुकून के साथ क़दम बढ़ाए। 12- जान जाने आफ़रीं के हवाले कर दे। 13- हदफ़ और निषाने पर निगाह रखे। 14- यह इत्मीनान रखे के ख़ुदा हमारे आमाल को देख रहा है और पैग़म्बर (स0) का भाई हमारी निगाह के सामने है।
ज़्ााहिर है के इन आदाब में बाज़ आदाब, तक़वा, ईमान, इत्मीनान वग़ैरा दाएमी हैसियत रखते हैं और बाज़ का ताल्लुक़ नेज़ा व “ामषीर के दौर से है लेकिन इसे भी हर दौर के आलाते हर्ब व ज़र्ब पर मुन्तबिक़ किया जा सकता है और उससे फ़ायदा उठाया जा सकता है।)))

67- आपका इरषादे गिरामी(जब रसूले अकरम (स0) के बाद सक़ीफ़ा बनी सादह की ख़बरें पहुँचीं और आपने पूछा के अन्सार ने क्या एहतेजाज किया तो लोगों ने बताया के वह यह कह रहे थे के एक अमीर हमारा होगा और एक तुम्हारा- तो आपने फ़रमाया)

तुम लोगों ने उनके खि़लाफ़ यह इस्तेदलाल क्यों नहीं किया के रसूले अकरम (स0) ने तुम्हारे नेक किरदारों के साथ हुस्ने सुलूक और ख़ताकारों से दरगुज़र करने की वसीयत फ़रमाई है?
लोगों ने कहा के इसमें क्या इस्तेदलाल है?
फ़रमाया के अगर इमामत व इमारत इनका हिस्सा होती तो इनसे वसीयत की जाती न के इनके बारे में वसीयत की जाती। इसके बाद आपने सवाल किया के क़ुरैष की दलील क्या थी? लोगों ने कहा के वह अपने को रसूले अकरम (स0) के “ाजरे में साबित कर रहे थे। फ़रमाया के अफ़सोस “ाजरे से इस्तेदलाल किया और समरह को ज़ाया कर दिया।

68- आपका इरषादे गिरामी(जब आपने मोहम्मद बिन अबीबक्र को मिस्र की ज़िम्मेदारी हवाले की और उन्हें क़त्ल कर दिया गया)

मेरा इरादा था के मिस्र का हाकिम हाषिम बिन अतबा को बनाऊं अगर उन्हें बना देता तो हरगिज़ मैदान को मुख़ालेफ़ीन के लिये ख़ाली न छोड़ते और उन्हें मौक़े से फ़ायदा न उठाने देते (लेकिन हालात ने ऐसा न करने दिया)।
इस बयान का मक़सद मोहम्मद बिन अबीबक्र की मज़म्मत नहीं है इसलिये के वह मुझे अज़ीज़ था और मेरा ही परवरदा था।

(((उस्ताद अहमद हसन याक़ूब ने किताब नज़रियए अदालते सहाबा में एक मुफ़स्सिल बहस की है के सक़ीफ़ा में कोई क़ानून इज्तेमाअ इन्तख़ाब ख़लीफ़ा के लिये नहीं हुआ था और न कोई इसका एजेन्डा था और न सवा लाख सहाबा की बस्ती में से दस बीस हज़ार अफ़राद जमा हुए थे बल्कि सअद बिन अबादा की बीमारी की बिना पर अन्सार अयादत के लिये जमा हुए थे और बाज़ मुहाजेरीन ने इस इज्तेमाअ को देखकर यह महसूस किया के कहीं खि़लाफ़त का फ़ैसला न हो जाए, तो बरवक़्त पहुंचकर इस क़द्र हंगामा किया के अन्सार में फूट पड़ गई और फ़िल ज़ोर हज़रत अबूबक्र की खि़लाफ़त का एलान कर दिया और सारी कारवाई लम्हों में यूं मुकम्मल हो गई के सअद बिन अबादा को पामाल कर दिया गया और हज़रत अबूबक्र ‘‘ताजे खि़लाफ़त’’ सर पर रखे हुए सक़ीफ़ा से बरामद हो गए। इस “ाान से के इस अज़ीम मुहिम की बिना पर जनाज़ाए रसूल में षिरकत से भी महरूम हो गए और खि़लाफ़त का पहला असर सामने आ गया।
हाषिम बिन अतबा सिफ़फीन में अलमदारे लष्करे अमीरूल मोमेनीन थे। मिरक़ाल उनका लक़ब था के निहायत तेज़ रफ़तारी और चाबकदस्ती से हमला करते थे।
मोहम्मद बिन अबीबक्र अस्मार बिन्त ऐस के बत्न से थे जो पहले जनाबे जाफ़रे तैयार की ज़ौजा थीं और उनसे अब्दुल्लाह बिन जाफ़र पैदा हुए थे इसके बाद इनकी “ाहादत के बाद अबूबक्र की ज़ौजियत में आ गईं जिनसे मोहम्मद पैदा हुए और इनकी वफ़ात के बाद मौलाए कायनात की ज़ौजियत में आईं और मोहम्मद ने आपके ज़ेर असर तरबियत पाई यह और बात है के जब अम्र व आस ने चार हज़ार के लष्कर के साथ मिस्र पर हमला किया तो आपने आबाई उसूले जंग की बिना पर मैदान से फ़रार इख़्तेयार किया और बाला आखि़र क़त्ल हो गए और लाष को गधे की खाल में रख कर जला दिया गया या बरिवायते ज़िन्दा ही जला दिये गए और माविया ने इस ख़बर को सुनकर इन्तेहाई मसर्रत का इज़हार किया। (मरूजुल ज़हब)
अमीरूल मोमेनीन (अ0) ने इस मौक़े पर हाषिम को इसीलिये याद किया था के वह मैदान से फ़रार न कर सकते थे और किसी घर के अन्दर पनाह लेने का इरादा भी नहीं कर सकते थे।)))

69- आपका इरषादे गिरामी(अपने असहाब को सरज़न्ष करते हुए)

कब तक मैं तुम्हारे साथ वह नरमी का बरताव करूं जो बीमार ऊंट के साथ किया जाता है जिसका कोहान अन्दर से खोखला हो गया हो या इस बोसीदा कपड़े के साथ किया जाता है जिसे एक तरफ़ से सिया जाए तो दूसरी तरफ़ से फट जाता है। जब भी “ााम का कोई दस्ता तुम्हारे किसी दस्ते के सामने आता है तो तुममें से हर “ाख़्स अपने घर का दरवाज़ा बन्द कर लेता है और इस तरह छिप जाता है जैसे सूराख़ में गोह या भट में बिज्जू। ख़ुदा की क़सम ज़लील वही होगा जिसके तुम जैसे मददगार होंगे और जो तुम्हारे ज़रिये तीरअन्दाज़ी करेगा गोया वह सोफ़ारे षिकस्ता और पैकाने निदाष्ता तीर से निषाना लगाएगा ख़ुदा की क़सम तुम सहने ख़ाना में बहुत दिखाई देते हो और परचमे लष्कर के ज़ेरे साये बहुत कम नज़र आते हो। मैं तुम्हारी इस्लाह का तरीक़ा जानता हूं और तुम्हें सीधा कर सकता हूं लेकिन क्या करूं अपने दीन को बरबाद करके तुम्हारी इस्लाह नहीं करना चाहता हूं। ख़ुदा तुम्हारे चेहरों को ज़लील करे और तुम्हारे नसीब को बदनसीब करे। तुम हक़ को इस तरह नहीं पहुंचाते हो जिस तरह बातिल की मारेफ़त रखते हो और बातिल को इस तरह बातिल नहीं क़रार देते हो जिस तरह हक़ को ग़लत ठहराते हो।

70-आपका इरषादे गिरामी
(उस सहर के हंगाम जब आपके सरे अक़दस पर ज़रबत लगाई गई)

अभी मैं बैठा हुआ था के अचानक आंख लग गई और ऐसा महसूस हुआ के रसूले अकरम (स0) के सामने तषरीफ़ फ़रमा हूँ। मैंने अर्ज़ की के मैंने आपकी उम्मत से बेपनाह कजरवी और दुष्मनी का मुषाहेदा किया है, फ़रमाया के बददुआ करो?
तो मैंने यह दुआ की ख़ुदाया मुझे इनसे बेहतर क़ौम दे दे और इन्हें मुझसे सख़्ततर रहनुमा दे दे।

(((यह भी रूयाए सादेक़ा की एक क़िस्म है जहां इन्सान वाक़ेयन यह देखता है और महसूस करता है जैसे ख़्वाब की बातों को बेदारी के आलम में देख रहा हो। रसूले अकरम (स0) का ख़्वाब में आना किसी तरह की तरदीद और तश्कीक का मुतहम्मल नहीं हो सकता है लेकिन यह मसला बहरहाल क़ाबिले ग़ौर है के जिस वसी ने इतने सारे मसायब बरदाष्त कर लिये और उफ़ तक नहीं की उसने ख़्वाब में रसूले अकरम (स0) को देखते ही फ़रयाद कर दी और जिस नबी ने सारी ज़िन्दगी मज़ालिम व मसाएब का सामना किया और बददुआ नहीं की, उसने बददुआ करने का हुक्म किस तरह दे दिया?
हक़ीकते अम्र यह है के हालात उस मन्ज़िल पर थे जिसके बाद फ़रयाद भी बरहक़ थी और बददुआ भी लाज़िम थी। अब यह मौलाए कायनात का कमाले किरदार है के बराहे रास्त क़ौम की तबाही और बरबादी की दुआ नहीं की बल्के उन्हें ख़ुद इन्हीं के नज़रियात के हवाले कर दिया के ख़ुदाया! यह मेरी नज़र में बुरे हैं तो मुझे इनसे बेहतर असहाब दे दे और मैं इनकी नज़र में बुरा हूं तो उन्हें मुझसे बदतर हाकिम दे दे ताके इन्हें अन्दाज़ा हो के बुरा हाकिम क्या होता है?
मौलाए कायनात (अ0) की यह दुआ फ़िलज़ोर क़ुबूल हो गई और चन्द लम्हों के बाद आपको मासूम बन्दगाने ख़ुदा का जवार हासिल हो गया और “ारीर क़ौम से निजात मिल गई।)))

71-आपके ख़ुत्बे का एक हिस्सा(अहले इराक़ की मज़म्मत के बारे में)

अम्माबाद! ऐ एहले ईराक़ ! बस तुम्हारी मिसाल उस हामला औरत की है जो 9 माह तक बच्चे को षिकम में रखे और जब विलादत का वक़्त आए तो साक़ित कर दे और फिर उसका “ाौहर भी मर जाए और ब्योगी की मुद्दत भी तवील हो जाए के क़रीब का कोई वारिस न रह जाए और दूर वाले वारिस हो जाएं।
ख़ुदा गवाह है के मैं तुम्हारे पास अपने इख़्तेदार से नहीं आया हूं बल्के हालात के जब्र से आया हूं और मुझे यह ख़बर मिली है के तुम लोग मुझ पर झूट का इल्ज़ाम लगाते हो। ख़ुदा तुम्हें ग़ारत करे। मैं किसके खि़लाफ़ ग़लत बयानी करूंगा?
ख़ुदा के खि़लाफ़ ? जबके मैं सबसे पहले उस पर ईमान लाया हूँ।
या रसूले ख़ुदा के खि़लाफ़? जबके मैंने सबसे पहले उनकी तस्दीक़ की है।
ळरगिज़ नहीं! बल्कि यह बात ऐसी थी जो तुम्हारी समझ से इसके अहल नहीं थे। ख़ुदा तुमसे समझे। मैं तुम्हें जवाहर पारे नाप नाप कर दे रहा हूँ और कोई क़ीमत नहीं मांग रहा हूँ। मगर ऐ काष तुम्हारे पास इसका ज़र्फ़ होता। और अनक़रीब तुम्हें इसकी हक़ीक़त मालूम हो जाएगी।

(((दहवल अर्ज़ के बारे में दो तरह के तसव्वुरात पाए जाते हैं। बाज़ हज़रात का ख़याल है के ज़मीन को आफ़ताब से अलग करके फ़िज़ाए बसीत में लुढ़का दिया गया और इसी का नाम दहवल अर्ज़ है और बाज़ हज़रात का कहना है के दहव के मानी फ़र्ष बिछाने के हैं। गोया के ज़मीन को हमवार बनाकर क़ाबिले सुकूनत बना दिया गया और यही दहवल अर्ज़ है। बहरहाल रिवायात में इसकी तारीख़ 25 ज़ीक़ादा बताई गई है जिस तारीख़ को सरकारे दो आलम (स0) हुज्जतुलविदा के लिये मदीने से बरामद हुए थे और तख़लीक़े अर्ज़ की तारीख़ मक़सदे तख़लीक़ से हमआहंग हो गई थी। इस तारीख़ में रोज़ा रखना बेपनाह सवाब का हामिल है और यह तारीख़ साल के उन चार दिनों में “ाामिल है जिसका रोज़ा अज्र बेहिसाब रखता है।
25 ज़ीक़ादा, 17 रबीउल अव्वल, 27 रजब और 18 ज़िलहिज्जा
ग़ौर कीजिये तो यह निहायत दरजए हसीन इन्तेख़ाबे क़ुदरत है के पहला दिन वह है जिसमें ज़मीन का फ़र्ष बिछाया गया, दूसरा दिन वह है जब मक़सदे तख़लीक़ कायनात को ज़मीन पर भेजा गया, तीसरा दिन वह है जब इसके मन्सब का एलान करके इसका काम “ाुरू कराया गया और आखि़री दिन वह है जब इसका काम मुकम्मल हो गया और साहबे मन्सब को ‘‘अकमलतो लकुम दीनेकुम’’ की सनद मिल गई।)))

72- आपके ख़ुत्बे का एक हिस्सा
(जिसमें लोगों को सलवात की तालीम दी गई है और सिफ़ाते ख़ुदा और रसूल (स0) का ज़िक्र किया गया है)

ऐ ख़ुदा! ऐ फ़र्षे ज़मीन के बिछाने वाले और बलन्दतरीन आसमानों को रोकने वाले और दिलों को इनकी नेक बख़्त या बदबख़्त फ़ितरतों पर पैदा करने वाले, अपनी पाकीज़ा तरीन और मुसलसल बढ़ने वाले बरकात को अपने बन्दे और रसूल हज़रत मोहम्मद (स0) पर क़रार दे जो सिलसिलए नबूवतों के ख़त्म करने वाले दिलो दिमाग़ के बन्द दरवाज़ों को खोलने वाले, हक़ के ज़रिये हक़ का एलान करने वाले, बातिल के जोष व ख़रोष को दफ़ा करने वाले और गुमराहियों के हमलों का सर कुचलने वाले थे। जो बार जिस तरह इनके हवाले किया गया उन्होंने उठा लिया। तेरे अम्र के साथ क़याम किया। तेरी मर्ज़ी की राह में तेज़ क़दम बढ़ाते रहे, न आगे बढ़ने से इनकार किया और न इनके इरादों में कमज़ोरी आई। तेरी वही को महफ़ूज़ किया तेरे अहद की हिफ़ाज़त की, तेरे हुक्म के निफ़ाज़ की राह में बढ़ते रहे यहां तक के रोषनी की जुस्तजू करने वालों के लिये आगणन रौषन कर दी और कुम करदा राह के लिये रास्ता वाज़ेह कर दिया। इनके ज़रिये दिलों ने फ़ितनों और गुनाहों में ग़र्क़ रहने के बाद भी हिदायत पा ली और इन्होंने रास्ता दिखाने वाले निषानात और वाज़ेह एहकाम क़ायम कर दिये। वह तेरे अमानतदार बन्दे, तेरे पोषीदा उलूम के ख़ज़ानादार, रोज़े क़यामत के लिये तेरे राहे हक़ के साथ भेजे हुए और मख़लूक़ात की तरफ़ तेरे नुमाइन्दे थे।
ख़ुदाया इनके लिये अपने सायए रहमत में वसीअतरीन मन्ज़िल क़रार दे दे और इनके ख़ैर को अपने फ़ज़्ल से दुगना, चैगना कर दे। ख़ुदाया इनकी इमारत को तमाम इमारतों से बलन्दतर और इनकी मन्ज़िल को अपने पास बुज़ुर्गतर बना दे। इनके नूर की तकमील फ़रमा और असरे रिसालत के सिले में इन्हें मक़बूल “ाहादत और पसन्दीदा अक़वाल का इनआम इनायत कर के इनकी गुफ़्तगू हमेषा आदिलाना और इनका फ़ैसला हमेषा हक़ व बातिल के दरमियान हदे फ़ासिल रहा है। ख़ुदाया हमें इनके साथ ख़ुषगवार ज़िन्दगी, नेमात की मन्ज़िल, ख़्वाहिषात व लज़्ज़ात की तकमील के मरकज़, आराइष व तमानत के मुक़ाम और करामत व “ाराफ़त के तोहफ़ों की मन्ज़िल पर जमा कर दे।

(((यह इस्लाम का मख़सूस फ़लसफ़ा है जो दुनियादारी के किसी निज़ाम में नहीं पाया जाता है। दुनियादारी का मषहूर व मारूफ़ निज़ाम व उसूल यह है के मक़सद हर ज़रिये को जाएज़ बना देता है। इन्सान को फ़क़त यह देखना चाहिये के मक़सद सही और बलन्द हो। इसके बाद इस मक़सद तक पहुंचने के लिये कोई भी रास्ता इख़्तेयार कर ले इसमें कोई हर्ज और मुज़ाएक़ा नहीं है लेकिन इसलाम का निज़ाम इससे बिल्कुल मुख़्तलिफ़ है, वह दुनिया में मक़सद और मज़हब दोनों का पैग़ाम लेकर आया है।
इसने ‘‘इन्नद्दीन’’ कहकर एलान किया है के इस्लाम तरीक़ाए हयात है और ‘‘इन्दल्लाह’’ कहकर वाज़ेह किया है के इसका हदफ़ हक़ीक़ी ज़ात परवरदिगार है। लेहाज़ा वह न ग़लत मक़सद को मक़सद क़रार देने की इजाज़त दे सकता है और न ग़लत रास्ते को रास्ता क़रार देने की। इसका मन्षा यह है के इसके मानने वाले सही रास्ते पर चलें और इसी रास्ते के ज़रिये मन्ज़िल तक पहुंचें। चुनांचे मौलाए कायनात ने सरकारे दो आलम (स0) की इसी फ़ज़ीलत की तरफ़ इषारा किया है के जब आपने जाहेलीयत के नक़्क़ारख़ाने में आवाज़े हक़ बलन्द की है लेकिन इस आवाज़ को बलन्द करने का तरीक़ा और रास्ता भी सही इख़्तेयार किया है वरना जाहेलीयत में आवाज़ बलन्द करने का एक तरीक़ा यह भी था के इस क़द्र “ाोर मचाओ के दूसरे की आवाज़ न सुनाई दे। इस्लाम ऐसे अहमक़ाना अन्दाज़े फ़िक्र की हिमायत नहीं कर सकता है। वह अपने फातेहीन से भी यही मुतालेबा करता है के हक़ का पैग़ाम हक़ के रास्ते से पहुंचाओ, ग़ारतगिरी और लूटमार के ज़रिये नहीं। यह इस्लाम की पैग़ाम रसानी नहीं है। ख़ुदा और रसूल (स0) के लिये ईज़ारसानी है जिसका जुर्म इन्तेहाई संगीन है और इसकी सज़ा दुनिया व आख़ेरत दोनों की लानत है।))

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