Friday, April 29, 2011

Nahjul Balagha Hindi Khutba 195-197 नहजुल बलाग़ा हिन्दी ख़ुत्बा 195-197

195-आपके ख़ुत्बे का एक हिस्सा

सारी तारीफ़ उस अल्लाह के लिये जिसने अपनी सल्तनत के आसार और किबरियाई के जलाल को इस तरह नुमायां किया है के अक़्लों की निगाहें अजायबे क़ुदरत से हैरान हो गई हैं और नुफ़ूस के तसव्वुरात व इफ़्कार उसके सिफ़ात की हक़ीक़त के इरफ़ान से रूक गए हैं।
मैं गवाही देता हूँ के उसके अलावा कोई ख़ुदा नहीं है और यह गवाही सिर्फ़ ईमान व यक़ीन, इख़लास व एतेक़ाद की बिना पर है और फिर मैं गवाही देता हूँ के मोहम्मद (स0) उसके बन्दे और रसूल हैं, उसने इन्हें उस वक़्त भेजा है जब हिदायत के निषानात मिट चुके थे और दीन के रास्ते बेनिषान हो चुके थे। उन्होंने हक़ का वाषिगाफ़ अन्दाज़ से इज़हार किया। लोगों को हिदायत दी और सीधे रास्ते पर लगाकर मयानारवी का क़ानून बना दिया।
बन्दगाने ख़ुदा, याद रखो परवरदिगार ने तुमको बेकार नहीं पैदा किया है और न तुमको बेलगाम छोड़ दिया है। तुमको दी जाने वाली नेमतों के हुदूद को जानता है और तुम पर किये जाने वाले एहसानात का “ाुमार रखता है लेहाज़ा उससे कामरानी और कामयाबी का तक़ाज़ा करो, उसकी तरफ़ दस्ते तलब बढ़ाओ और उससे अताया का मुतालेबा करो, कोई हेजाब तुम्हें इससे जुदा नहीं कर सकता है और कोई दरवाज़ा उसका तुम्हारे लिये बन्द नहीं हो सकता है, वह हर जगह और हर आन मौजूद है, हर इन्सान और हर जिन के साथ है, न अता उसके करम में रख़ना डाल सकती है और न हिदाया उसके ख़ज़ाने में कमी पैदा कर सकते हैं। कोई साएल इसके ख़ज़ाने को ख़ाली नहीं कर सकता है और कोई अतिया उसके करम की इन्तेहा को नहीं पहुंच सकता है। एक “ाख़्स की तरफ़ तवज्जो दूसरे की तरफ़ से रूख़ मोड़ नहीं सकती है और आवाज़ दूसरी आवाज़ से ग़ाफ़िल नहीं बना सकती है। इसका अतिया छीन लेने से मानेअ नहीं होता है और इसका ग़ज़ब रहमत से मषग़ूल नहीं करता है। रहमते इताब से ग़फ़लत में नहीं डाल देती है और हस्ती का पोषीदा होना ज़हूर से मानेअ नहीं होता है और आसार का ज़हूर हस्ती की परदावारी को नहीं रोक सकता है, वह क़रीब होके भी दूर है और बलन्द होकर भी नज़दीक है, वह ज़ाहिर होकर भी पोषीदा है और पोषीदा होकर भी ज़ाहिर है। वह जज़ा देता है लेकिन उसे जज़ा नहीं दी जाती है, उसने मख़लूक़ात को सोच बिचार करके नहीं बनाया है और न ख़स्तगी (तकान) की बिना पर उनसे मदद ली है।
बन्दगाने ख़ुदा! मैं तुम्हें तक़वा इलाही की वसीयत करता हूँ के यही हर ख़ैर की ज़माम और हर नेकी की बुनियाद है, इसके बन्धनों से वाबस्ता रहो और इसके हक़ाएक़ से मुतमस्सिक रहो, यह तुमको राहत की महफ़ूज़ मन्ज़िलों और वुसअत के बेहतरीन इलाक़ों तक पहुंचा देगा, तुम्हारे लिये महफ़ूज़ मुक़ामात होंगे और बाइज़्ज़त मनाज़िल, उस दिन जिस दिन आंखें फटी की फटी रह जाएंगी और एतराफ़ अन्धेरा छा जाएगा। बोटियां मोअत्तल कर दी जाएंगी (दस-दस महीने की गाभिन ऊंटनियांं बेकार कर दी जाएंगी) और सूर फूंक दिया जाएगा। उस वक़्त सबका दम निकल जाएगा और हर ज़बान गूंगी हो जाएगी। बलन्दतरीन पहाड़ और मज़बूत तरीन चट्टानें रेज़ा रेज़ा हो जाएंगी, पत्थरों की चट्टानें चमकदार सराब की “ाक्ल में तब्दील हो जाएंगी और उनकी मन्ज़िल एक साफ़ चटियल मैदान हो जाएगी, न कोई “ाफ़ीअ “िाफ़ाअत करने वाला होगा और न कोई दोस्त काम आने वाला होगा, और न कोई माज़ेरत व दिफ़ाअ करने वाली होगी।
(((- जिन लोगों के सिफ़ात व कमालात पर मिज़ाज या आदात की हुकमरानी होती है, इनके कमालात में इस तरह की यकसानियत पाई जाती है के मेहरबान होते हैं और मेहरबान ही होते हैं और ग़ुस्सावर ही होते हैं। लेकिन मालिके कायनात के औसाफ़ व कमालात इससे बिलकुल मुख़्तलिफ़ हैं उसके औसाफ़ व कमालात का सरचष्मा इसका मिज़ाज या उसकी तबीअत नहीं है। बल्कि उनका वाक़ेई सरचष्मा इसकी हिकमत और मसलेहत है, लेहाज़ा उसके बारे में ऐन मुमकिन है के एक ही वक़्त में मेहरबान भी हो और ग़ज़बनाक भी, नेमतें अता भी कर रहा हो और सल्ब भी कर रहा हो, उसके कमाल का ज़हूर भी हो और पर्दा भी हो, वह दूर भी नज़र आए और क़रीब भी, इसलिये के मसालेह का तक़ाज़ा हमेषा अफ़राद के एतबार से मुख़्तलिफ़ होता है। एक “ाख़्स का किरदार रहमत चाहता है और दूसरे का ग़ज़ब, एक के हक़ में मसलेहत अता कर देना है और दूसरे के हक़ में छीन लेना, एक जज़ा और ईनाम का सज़ावार है और दूसरा सज़ा व इताब का हक़दार। तू हकीम अललइतलाक़ का फ़र्ज़ है के एक ही वक़्त में हर “ाख़्स के साथ वैसा ही बरताव करे जिसका वह अहल है और एक बरताव उसे दूसरे बरताव से ग़ाफ़िल न बना सके-)))
196-आपके ख़ुत्बे का एक हिस्सा(जिसमें सरकारे दो आलम (स0) की मद्हा की गई है)

प्रवरदिगार ने आपको उस वक़्त मबऊस किया जब न कोई निषाने हिदायत क़ायम रह गया था और न कोई मिनारए दीन रौषन था और न कोई रास्ता वाज़ेह था।
बन्दगाने ख़ुदा! मैं तुम्हें तक़वा इलाही की वसीयत करता हूँ और दुनिया से होषियार कर रहा हूँ के यह कूच का घर और बदमज़गी का इलाक़ा है, इसका बाषिन्दा हर हाल सफ़र करने वाला है और इसका मुक़ीम बहरहाल जुदा होने वाला है। यह अपने अहल को लेकर इस तरह लरज़ती है जिस तरह गहरे समन्दरों में तन्द व तेज़ हवाओं की ज़द पर किष्तियां, कुछ लोग ग़र्क़ और हलाक हो जाते हैं और कुछ मौजों के सहारे पर बाक़ी रह जाते हैं। तेज़ हवाएं उन्हें अपने दामन में लिये फ़िरती रहती हैं और अपनी हौलनाक मन्ज़िलों की तरफ़ ले जाती रहती हैं। जो ग़र्क़ हो गया वह दोबारा पाया नहीं जा सकता (हाथ नहीं आ सकता) और जो बच गया है उसका रास्ता हलाकत की ही तरफ़ जा रहा है।
बन्दगाने ख़ुदा! अभी बात को समझ लो और जबके ज़बानें आज़ाद हैं और बदन सही व सालिम हैं। आज़ा में लचक बाक़ी है और आने-जाने की जगह वसीअ और काम का मैदान तवील व अरीज़ है। क़ब्ल इसके के मौत नाज़िल हो जाए और अजल का फन्दा गले में पड़ जाए, अपने लिये मौत की आमद को यक़ीनी समझ लो और उसके आने का इन्तेज़ार न करो।

197- आपका इरषादे गिरामी(जिसमें पैग़म्बरे इस्लाम (स0) के अम्र व नहीं और तालीमात को क़ुबूल करने के ज़ैल में फ़ज़ीलत का ज़िक्र किया गया है)

असहाबे पैग़म्बर (स0) में “ारीअत के अमानतदार अफ़राद इस हक़ीक़त हैं के मैंने एक लम्हे के लिये भी ख़ुदा और रसूल (स0) की बात को रद नहीं किया और मैंने पैग़म्बरे अकरम (स0) पर अपनी जान उन मुक़ामात पर क़ुरबान की है जहां बड़े-बड़े बहादुर भाग खड़े होते हैं और उनके क़दम पीछे हट जाते हैं, सिर्फ़ इस बहादुरी की बुनियाद पर जिससे परवरदिगार ने जुझे सरफ़राज़ फ़रमाया था।
रसूले अकरम (स0) उस वक़्त दुनिया से रूख़सत हुए हैं जब उनका सर मेरे सीने पर था और उनकी रूहे अक़दस मेरे हाथों पर जुदा हुई है तो मैंने अपने हाथों को चेहरे पर मल लिया, मैंने ही आपको ग़ुस्ल दिया है जब मलाएका मेरी इमदाद कर रहे थे और घर के अन्दर और बाहर एक कोहराम बरपा था, एक गिरोह नाज़िल हो रहा था और एक वापस जा रहा था। सब नमाज़े जनाज़ा पढ़ रहे थे और मैं मुसलसल उनकी आवाज़ें सुन रहा था, यहां तक के मैंने ही हज़रत को सुपुर्दे लहद किया है। तो अब बताओ के ज़िन्दगी और मौत में मुझसे ज़्यादा उनसे क़रीबतर कौन है? अपनी बसीरतों के साथ और सिद्क़े नीयत के एतमाद पर आगे बढ़ो, अपने दुष्मन से जेहाद करो, क़सम है उस परवरदिगार की जिसके अलावा कोई ख़ुदा नहीं है के मैं हक़ के रास्ते पर पर हूँ और वह लोग बातिल की लग़्िज़षों की मन्ज़िल में, मैं जो कह रहा हूँ वह तुम सुन रहे हो और मैं अपने और तुम्हारे दोनों के लिये ख़ुदा की बारगाह में अस्तग़फ़ार कर रहा हूँ।
(((-मौलाए कायनात (अ0) की पूरी हयात इस इरषादे गिरामी का बेहतरीन मुरक़्क़ा है जहां हिजरत की रात से लेकर फ़तहे मक्का तक और उसके बाद तबलीग़े बराअत तक कोई मौक़ा ऐसा नहीं था जहां आपने सरकारे दो आलम (स0) और उनके मक़सद की ख़ातिर अपनी जान को ख़तरे में न डाल दिया हो और उस वहदत ज़ात व इताअत का सुबूत न दिया हो जिसकी तरफ़ ख़ुद हज़रत ने मैदाने ओहद में इषारा किया था जब जिबराईले अमीन (अ0) ने अज़ की के हुज़ूर अली (अ0) की मवासात को देख रहे हैं? तो आपने फ़रमाया के इसमें हैरत की बात क्या है ‘‘अली (अ0) मुझसे है और मैं अली (अ0) से हूँ’’।
इसके बाद इन्तेक़ाल से लेकर दफ़्न के आखि़री मरहले तक हर क़दम पर हुज़ूर के उमूर के ज़िम्मेदार रहे जबके मोअर्रेख़ीन के बयान की बिना पर बड़े बड़े सहाबाए कराम दफ़न में षिरकत की सआदत हासिल न कर सके और खि़लाफ़त साज़ी की मुहिम में मसरूफ़ रह गए।-)))

No comments:

Post a Comment