Saturday, April 30, 2011

Nahjul Balagha Hindi Khutba 198-208 नहजुल बलाग़ा हिन्दी ख़ुत्बा 198-208

198- आपके ख़ुत्बे का एक हिस्सा(जिसमें ख़ुदा के आलिमे जुजि़्यात होने पर ताकीद की गई है और फिर तक़वा पर आमादा किया गया है)

वह परवरदिगार सहराओं में जानवरों की फ़रयाद को भी जानता है और तनहाइयों में बन्दों के गुनाहों को भी, वह गहरे समन्दरों में मछलियों के रफ़्त व आमद से भी बाख़बर है और तेज़ व तन्द हवाओं से पैदा होने वाले तलातुम से भी। और मैं गवाही देता हूँ के मोहम्मद (स0) ख़ुदा के मुन्तख़ब बन्दे, उसकी वही के सफ़ीर और उसकी रहमत के रसूल हैं।
अम्माबाद! मैं तुम सबको उसी ख़ुदा से डरने की नसीहत कर रहा हूँ जिसने तुम्हारी खि़लक़त की इब्तेदा की है और उसी की बारगाह में तुम्हें पलट कर जाना है, उसी के ज़रिये तुम्हारे मक़ासिद की कामयाबी है और उसी की तरफ़ तुम्हारी रग़बतों की इन्तेहा है। उसी की सिम्त तुम्हारा सीधा रास्ता है और उसी की तरफ़ तुम्हारी फ़रयादों का निषाना है।
यह तक़वाए इलाही तुम्हारे दिलों की बीमारी की दवा है और तुम्हारे क़ुलूब के अन्धेपन की बसारत, यह तुम्हारे जिस्मों की बीमारी की षिफ़ा का सामान है और तुम्हारे सीनों के फ़साद की इस्लाह, यही तुम्हारे नुफ़ूस की गन्दगी की तहारत है और यही तुम्हारी आंखों के चुन्धियाने की जला, इसी में तुम्हारे दिल के इज़्तेराब का सुकून है और यही ज़िन्दगी की तारीकियों की ज़िया है, इताअते ख़ुदा को अन्दर का “ाोआर बनाओ सिर्फ़ बाहर का नहीं, और उसे बातिन में हासिल करो सिर्फ़ ज़ाहिर में नहीं। अपनी पस्लियों के दरम्यान समो लो और अपने जुमला उमूर का हाकिम क़रार दो, तष्नगी में विरूद के लिये चष्मा तसव्वुर करो और मन्ज़िले मक़सूद तक पहुंचने के लिये वसीला क़रार दो। अपने रोज़े फ़ुरूअ के लिये सिपर बनाओ और अपनी तारीक क़ब्रों के लिये चिराग़, अपनी तूलानी वहषते क़ब्र के लिये मोनिस बनाओ और अपने रन्ज व ग़म के मराहेल के लिये सहारा, इताअते इलाही तमाम घेरने वाले बरबादी के असबाब, आने वाले ख़ौफ़नाक मराहेल और भड़कती हुई आग के “ाोले के लिये हरज़बान है। जिसने तक़वा को इख़्तेयार कर लिया उसके लिये सख़्ितयां क़रीब आकर दूर चली जाती हैं और उमूरे ज़िन्दगी तल्ख़ (बदमज़ा) होने के बाद “ाीरीं हो जाते हैं। मौजें तह ब तह हो जाने के बाद भी हट जाती हैं और दुष्वारियां मषक़्क़तों में मुब्तिला कर देने के बाद भी आसान हो जाती हैं। क़हत के बाद करामतों की बारिष “ाुरू हो जाती है और सहाबे रहमत हट जाने के बाद फिर बरसने लगता है और नेमतों के चष्मे जारी जो जाते हैं, फ़ुवार की कमी के बाद बरकत की बरसात “ाुरू हो जाती है।

(((-इस मुक़ाम पर मौलाए कायनात ने इस नुक्ते की तरफ़ मुतवज्जो करना चाहा है के तक़वा का फ़ायदा सिर्फ़ आखि़रत तक महदूद नहीं है के तुम यहाँ गुनाहों से परहेज़ करो, मालिक वहां तुम्हें आतिषे जहन्नम से महफ़ूज़ कर देगा बल्कि यह तक़वा आखि़रत के साथ दुनिया के हर मरहले पर काम आने वाला है और किसी मरहले पर इन्सान को नज़रअन्दाज़ करने वाला नहीं है। मुष्किलात से निजात दिलाना इसी तक़वा का कारनामा है और तूफ़ान का मुक़ाबला इसी तक़वा की ताक़त से होता है, रहमत के चष्मे इसी से जारी होते हैं और फ़़ल व करम के बादल इसी की बरकत से बरसते हैं और “ाायद यह इस नुक्ते की तरफ़ इषारा ह के इन्सानी ज़िन्दगी की सारी परेषानियां उसके आमाल की कमज़ोरियों से पैदा होती हैं, जब इन्सान तक़वा के ज़रिये किरदार को मज़बूत करेगा तो हर परेषानी से मुक़ाबला आसान हो जाएगा।
इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं है के मुत्तक़ीन की ज़िन्दगी में परेषानी नहीं होती है और वह चैन और सुकून की ज़िन्दगी गुज़ारते हैं, ऐसा होता तो सब्र का कोई काम न होता और मुत्तक़ीन का सिलसिला साबेरीन से अलग हो जाता, बल्कि इसका मतलब सिर्फ़ यह है के तक़वा सब्र का हौसला पैदा करता है और तक़वा के ज़रिये मसाएब से मुक़ाबला करने का हौसला पैदा हो जाता है और उसकी बरकत से रहमतों का नुज़ूल “ाुरू हो जाता है-)))

अल्लाह से डरो जिसने तुम्हें नसीहत से फ़ायदा पहुंचाया है और अपने पैग़ाम के ज़रिये नसीहत की है और अपनी नेमत से तुम पर एहसान किया है, अपने नफ़्स को उसकी इबादत के लिये हमवार करो और उसके हक़ की इताअत से ओहदा बरआ होने की कोषिष करो, और इसके बाद याद रखो के यह इस्लाम वह दीन है जिसे मालिक ने अपने लिये पसन्द फ़रमाया है और अपनी निगाहों में इसकी देख भाल की है और इसे बेहतरीन ख़लाएक़ के हवाले किया है और अपनी मोहब्बत पर इसके सुतूनों को क़ायम किया है। इसकी इज़्ज़त के ज़रिये अदयान को सरनिगों किया है और इसकी बलन्दी के ज़रिये मिल्लतों की पस्ती का इज़हार किया है। इसके दुष्मनों को इसकी करामत के ज़रिये ज़लील किया है और इससे मुक़ाबला करने वालों को इसकी नुसरत के ज़रिये रूसवा किया है इसके रूकन के ज़रिये ज़लालत के अरकान को मुनहदिम किया है और इसके हौज़ से प्यासों को सेराब किया है और फ़िर पानी उलचने वालों के ज़रिये इन हौज़ों को भर दिया है।
इसके बाद इस दीन को ऐसा बना दिया है के इसके बन्धन टूट नहीं सकते हैं, इसकी कड़ियां खुल नहीं सकती हैं, इसकी बुनियाद मुनहदिम नहीं हो सकती है, इसके सुतून गिर नहीं सकते हैं, इसका दरख़्त उखड़ नहीं सकता है, उसकी मुद्दत तमाम नहीं होे सकती है, उसके आसार मिट नहीं सकते हैं (न उसके क़वानीन महो होते हैं) उसकी “ााख़ेंक ट नहीं सकती हैं उसके रास्ते तंग नहीं हो सकते हैं। उसकी आसानियां दुष्वार नहीं हो सकती हैं, उसकी सफ़ेदी में स्याही नहीं है और उसकी इस्तेक़ामत में कजी नहीं है, इसकी लकड़ी टेढ़ी नहीं है और इसकी वुसअत में दुष्वारी नहीं है। इसका चिराग़ बुझ नहीं सकता है और इसकी हिलावत में तल्ख़ी नहीं आ सकती है। इसके सुतून ऐसे हैं जिनके पाये हक़ की ज़मीन में नस्ब किये गये हैं और फिर इसकी असास को पाएदार बनाया गया है। इसके चष्मों का पानी कम नहीं हो सकता है और इसके चिराग़ों की लौ मद्धम नहीं हो सकती है। इसके मिनारों से राहगीर हिदायत पाते हैं और इसके निषानात को राहों में निषाने मन्ज़िल बनाया जाता है। इसके चष्मों से प्यासे सेराब होते है और परवरदिगार ने इसके अन्दर अपनी रिज़ा की इन्तेहाई रखी, अपने बलन्दतरीन अरान और अपनी इताअत का उरूज क़रार दिया है। यह दीन उसके नज़दीक मुस्तहकम अरकान वाला बलन्दतरीन बुनियादों वाला हक़ीक़ी (बलन्द) दलाएल वाला, रौषन ज़ियाओं वाला, ग़ालिब सलतनत वाला, बलन्द बुनियाद वाला और नामुमकिन तबाही वाला है। इसके “ारफ़ का तहफ़्फ़ुज़ करो, इसके एहकाम का इत्तेबाअ करो, उसके हुक़ूक़ को अदा करो और उसे उसकी वाक़ई मन्ज़िल पर क़रार दो।

(((-दीने इस्लाम का सबसे बड़ा इम्तेयाज़ यह है के इसके क़वानीन ख़ालिक़े कायनात ने बनाए हैं और हर क़ानून को फ़ितरते बषर से हमआहंग बनाया है उसने इसकी तषरीह में अपने महबूबतरीन बन्दे को भी दख़ील नहीं किया है और न किसी को इसके क़वानीन में तरमीम करने का हक़ दिया है। ज़ाहिर है के जो क़ानूने ख़ालिक़ व मालिक के कलाम के नतीजे में मन्ज़रे आम पर आएगा उसकी बक़ा की ज़मानत उसके दफ़आत के अन्दर ही होगी और जब तक यह कायनात बाक़ी रहेगी इसके मामलात में तग़य्युर व तबद्दुल की ज़रूरत न होगी।
इस्लाम के दीने पसन्दीदा होने का असर है के इसके सामने तमाम अदयाने आलम हक़ीर इसके मुक़ाबले में तमाम दुष्मनाने मज़हब ज़लील हैं। मालिक ने इसकी बुनियाद मोहब्बत पर रखी है और इसकी असास रहमत और रूबूबीयत को क़रार दिया है। इसका तसलसुल नाक़ाबिले इख़्तेताम है और इसके हलक़े नाक़ाबिले इन्फ़ेसाम। इसी में इन्सानियत की प्यास बुझाने का सामान है और इसी में हिदायत के तलबगारों के लिये बेहतरीन वसीलाए रहनुमाई है। रिज़ाए इलाही का सामन यही है इसके बग़ैर हिदायत का तसव्वुर मोहमिल है और इसके अलावा हर दीन नाक़ाबिले क़ुबूल है।-)))

इसके बाद मालिक ने हज़रत मोहम्मद (स0) को हक़ के साथ मबऊस किया जब दुनिया फ़ना की मन्ज़िल से क़रीबतर हो गई और आखि़रत सर पर मण्डलाने लगी, जब उजाला अन्धेरों में तबदील होने लगा और वह अपने चाहने वालों के लिये एक मुसीबत बनकर खड़ी हो गई, इसका फ़र्ष खुरदुरा हो गया और फ़ना के हाथों में अपनी मेहार देने के लिये तैयार हो गई। इस तरह के इसकी मुद्दत ख़ातमे के क़रीब पहुंच गई। इसकी फ़ना के आसार क़रीब आ गए। इसके अहल ख़त्म होने लगे, इसके हलक़े टूटने लगे, इसके असबाब मुन्तषिर होने लगे, इसके निषानात मिटने लगे, इसके ऐब खुलने लगे और इसके दामन सिमटने लगे।
अल्लाह ने इन्हें पैग़ाम रसानी का वसीला, उम्मत की करामत, अहले ज़माना की बहार, आवान व अन्सार की बलन्दी का ज़रिया और मददगार व अन्सार अफ़राद की इज़्ज़त व “ाराफ़त का वास्ता क़रार दिया है।
इसके बाद इन पर उस किताब को नाज़िल किया जिसकी कन्दील बुझ नहीं सकती है और जिसके चिराग़ की लौ मद्धम नहीं पड़ सकती है वह ऐसा समन्दर है जिसकी थाह मिल नहीं सकती है और ऐसा रास्ता है जिस पर चलने वाला भटक नहीं सकता है। ऐसी “ाुआअ जिसकी ज़ौ तारीक नहीं हो सकती है और ऐसा हक़ व बातिल का इम्तियाज़ जिसका बरहान कमज़ोर नहीं हो सकता है। ऐसी वज़ाहत जिसके अरकान मुनहदिम नहीं हो सकते हैं और ऐसी षिफ़ा जिसमें बीमारी का कोई ख़ौफ़ नहीं है। ऐसी इज़्ज़त जिसके अन्सार पस्पा नहीं हो सकते हैं और ऐसा हक़ किसके आवान बेयार व मददगार नहीं छोड़े जा सकते हैं।
यह ईमान का मअदन व मरकज़, इल्म का चष्मा और समन्दर, अदालत का बाग़ और हौज़, इस्लाम का संगे बुनियाद और असास, हक़ की वादी और इसका हमवार मैदान है। यह वह समन्दर है जिसे पानी निकालने वाले ख़त्म नहीं कर सकते हैं और वह चष्मा है जिसे उलचने वाले ख़ुष्क नहीं कर सकते हैं। वह घाट है जिस पर वारिद होने वाले इसका पानी कम नहीं कर सकते हैं और वह मन्ज़िल है जिसकी राह पर चलने वाले मुसाफ़िर भटक नहीं सकते हैं। वह निषाने मन्ज़िल है जो राहगीरों की नज़रों से ओझल नहीं हो सकता है और वह टीला है जिसका तसव्वुर करने वाले आगे नहीं जा सकते हैं।
परवरदिगार ने इसे ओलमा की सेराबी का ज़रिया, फ़ोक़हा के दिलों की बहार, स्वलहा के रास्तों के लिये “ााहेराह क़रार दिया है।

(((-कितना हसीन दौर था जब अम्बियाए कराम का सिलसिला क़ायम था, किताबें और सहीफ़े नाज़िल हो रहे थे, मुबल्लिग़ीने दीन व मज़हब अपने किरदार से इन्सानियत की रहनुमाई कर रहे थे और ज़मीन व आसमान के रिष्ते जुड़े हुए थे फिर यकबारगी क़ेरत का ज़माना आ गया और यह सारे सिलसिले टूट गए, दुनिया पर जाहेलियत का अन्धेरा छा गया और इन्सानियत ने अपनी ज़माम क़यादत जेहल व जाहेलीयत के हवाले कर दी।
ऐसे हालात में अगर सरकारे दो आलम (स0) का विरूद न होता तो यह दुनिया घटाटोप अन्धेरों ही की नज़र हो जाती और इन्सानियत को कोई रास्ता नज़र न आता। लेकिन यह मालिक का करम था के उसने रहमतुल लिलआलमीन को भेज दिया और अन्धेरी दुनिया को फिर दोबारा नूरे रिसालत से मुनव्वर कर दिया और आप के साथ एक नूर और नाज़िल कर दिया जिसका नाम क़ुराने मजीद था और जिसकी रौषनी नाक़ाबिले इख़्तेताम थी। यह बयकवक़्त दस्तूर भी था और एजाज़ भी, समन्दर भी था और चिराग़ भी। हक़ व बातिल का फ़ुरक़ान भी था और दीन व ईमान का बरहान भी, इसमें हर मर्ज़ का इलाज भी था और हर बीमारी का मदावा भी।
इसे मालिक ने सेराबी का ज़रिया भी बनाया था और दिलों की बहार भी। निषाने राह भी क़रार दिया और मन्ज़िले मक़सूद भी, जो “ाख़्स जिस नुक़्तए निगाह से देखे उसकी तस्कीन का सामान क़ुराने हकीम में मौजूद है और एक किताब सारी कायनात जिन व इन्स की हिदायत के लिये काफ़ी है बषर्ते के इसके मतालिब उन लोगों से उख़ज़ किये जाएं जिन्हें रासख़ोन फ़िल इल्म बनाया गया है और जिनके इल्मे क़ुरान की ज़िम्मेदारी मालिके कायनात ने ली है-)))
वह सरासर शिफ़ा है जिसके बाद कोई मर्ज़ नहीं रह सकता और वह नूर है जिसके बाद किसी ज़ुल्मत का इमकान नहीं है। वह रीसमान है जिसके हलक़े मुस्तहकम हैं और वह पनाहगाह है जिसकी बलन्दी महफ़ूज़ है। चाहने वालों के लिये इज़्ज़त, दाखि़ल होने वालों के लिये सलामती, इक़्तेदा करने वालों के लिये हिदायत, निस्बत करने वालों (जो इसे अपनी तरफ़ निस्बत दे उस) के लिये हुज्जत, बोलने वालों के लिये बुरहान (जो इसकी रू से बात करे उसके लिये दलील) और मनाज़िरा करने वालों के लिये ‘ााहिद है। बहस करने वालों की कामयाबी का ज़रिया है इसका बार उठाने वालों के लिये बोझ बटाने वाला, अमल करने वालों के लिये बेहतरीन सवारी, हक़ीक़त शिनासों के लिये बेहतरीन निशानी और असलहे सजने वालों के लिये सिपर है। फ़िक्र करने वालों के लिये इल्म और रिवायत करने वालों के लिये हदीस और क़ज़ावत करने वालों के लिये क़तई हुक्म और फ़ैसला है।

199-आपका इरशादे गिरामी(जिसकी असहाब को वसीयत फ़रमाया करते थे)

देखो नमाज़ की पाबन्दी और उसकी निगेहदाश्त करो, ज़्यादा से ज़्यादा नमाज़ें पढ़ो और उसे तक़र्रुबे इलाही का ज़रिया क़रार दो के यह साहेबाने ईमान के लिये वक़्त की पाबन्दी के साथ वाजिब की गई है। क्या तुमने अहले जहन्नम का जवाब नहीं सुना है के जब उनसे सवाल किया जाएगा के तुम्हें किस चीज़ ने यहां तक पहुंचा दिया है तो कहेंगे के हम नमाज़ी नहीं थे। यह नमाज़ गुनाहों को इस तरह झाड़ती है जिस तरह दरख़्त के पत्ते झड़ जाते हैं और इसी तरह गुनाहों से आज़ादी दिलाती है जिस तरह जानवर आज़ाद किये जाते हैं। रसूले अकरम (स0) ने इसे उस गर्म चश्मे से तश्बीह दी है जो इन्सान के दरवाज़े पर हो और वह रोज़ाना उसमें पांच मरतबा ग़ुस्ल करे। ज़ाहिर है के इसपर किसी कसाफ़त के बाक़ी रह जाने का इमकान नहीं रह जाता है।
इसके हक़ को वाक़ेअन उन साहेबाने ईमान ने पहचाना है जिन्हें ज़ीनते मुताअे दुनिया या तिजारत और कारोबार कोई ‘ौ भी यादे ख़ुदा आौर नमाज़ व ज़कात से ग़ाफ़िल नहीं कर सकते हंै। रसूले अकरम (स0) इस नमाज़ के लिये अपने को ज़हमत में डालते थे हालांके उन्हें जन्नत की बशारत दी जा चुकी थी इसलिये के परवरदिगार ने फ़रमा दिया था के अपने अहल (घर वालों) को नमाज़ का हुक्म दो और ख़ुद भी इसकी पाबन्दी करो तो आप अपने अहल को हुक्म भी देते थे और ख़ुद ज़हमत भी बरदाश्त करते थे।
इसके बाद ज़कात को नमाज़ के साथ मुसलमानों के लिये वसीलाए मुक़र्रब क़रार दिया गया है, जो इसे तय्यब ख़ातिर से अदा करेगा उसके गुनाहों के लिये यह कफ़्फ़ारा बन जाएगी और उसे जहन्नम से बचा लेगी, ख़बरदार कोई ‘ाख़्स इसे अदा करन के बाद इसके बारे में फ़िक्र न करे और न अफ़सोस करे के जो ‘ाख़्स दिली लगन के बग़ैर इसे अदा करता है और फ़िर इससे बेहतर अज्र व सवाब की उम्मीद करता है (उससे बेहतर चीज़ के लिये चश्मे बराह रहता है) वह सुन्नत से बेख़बर और अज्र व सवाब के एतबार से ख़सारे में है और उसका आमाल बरबाद है और उसकी निदामत दाएमी है।

(((- इसमें कोई ‘ाक नहीं है के सरकारे दो आलम (स0) ने नमाज़ क़ायम करने की राह में बेपनाह ज़हमतों का सामना किया है। रात रात भर मुसल्ले पर क़याम किया है और तरह-तरह की दुश्मनों की अज़ीयतों को बरदाश्त किया है लेकिन मालिके कायनात ने इसका अज्र भी बेहिसाब इनायत किया है के नमाज़ सरकार की याद का बेहतरीन ज़रिया बन गई है और इसके ज़रिये सरकार की ‘ाख़्सीयत और रिसालत को अबदी हैसियत हासिल हो गई है। नमाज़ी अज़ान व अक़ामत ही से सरकार का कलमा पढ़ना ‘ाुरू का देता है आौर फ़िर तशहुद व सलाम तक यह सिलसिला जारी रहता है और इस तरह तमाम उम्मतों का रिश्ता इनके पैग़म्बरों से टूट चुका है लेकिन उम्मते इस्लामियाा का रिश्ता सरकारे दो आलम (स0) से नहीं टूट सकता है और यह नमाज़ बराबर आपकी याद को ज़िन्दा रखेगी और मुसलमानों को हुस्ने किरदार की दावत देती रहेगी।
ज़कात को नमाज़ के साथ बयान करने का ज़ाहेरी फ़लसफ़ा यह है के नमाज़ अब्द व माबूद के दरम्यान का रिश्ता है और ज़कात बन्दों और बन्दों के दरम्यान का ताल्लुक़ है आौर इस तरह इस्लाम का निसाब मुकम्मल हो जाता है के मुसलमान अपने मालिक की इताअत भी करता है और अपने बनी नौअ के कमज़ोर अफ़राद का ख़याल भी रखता है और उनकी शिरकत के बग़ैर ज़िन्दा नहीं रहना चाहता है।)))

इसके बाद अमानतों की अदायगी का ख़याल रखो के अमानतदारी न करने वाला नाकाम होता है। अमानत को बलन्दतरीन आसमानों, फ़र्श ‘ाुदा ज़मीनों और बलन्द व बाला पहाड़ों के सामने पेश किया गया है जिनसे बज़ाहिर तवील व अरीज़ और आला व अरफ़ा कोई ‘ौ नहीं है और अगर कोई ‘ौ अपने तूल व अर्ज़ (लम्बाई, चैड़ाई या क़ूवत और ग़लबे) और ताक़त की बिना पर अपने को बचा सकती है तो यही चीज़ है। लेकिन यह सब ख़यानतत के अज़ाब से ख़ौफ़ज़दा हो गए और इस नुक्ते को समझ लिया है जिसको इनसे ज़ईफ़तर इन्सान ने नहीं पहचाना के वह अपने नफ़्स पर ज़ुल्म करने वाला और नावाक़िफ़ था।
परवरदिगार पर बन्दों के दिन व रात के आमाल में से कोई ‘ौ मख़फ़ी नहीं है। वह लताफ़त की बिना पर ख़बर रखता है और इल्म के एतबार से अहाता रखता है। तुम्हारे आज़ा ही उसके गवाह हैं और तुम्हारे हाथ पांव ही उसके लश्कर हैं। तुम्हारे ज़मीर उसके जासूस हैं और तुम्हारी तन्हाइयां भी उसकी निगाह के सामने हैं।

200-आपका इरशादे गिरामी(माविया के बारे में)

ख़ुदा की क़सम माविया मुझसे ज़्यादा होशियार नहीं है लेकिन क्या करूं के वह मक्रो फ़रेब और फ़िस्क़ व फ़ुजूर भी कर लेता है और अगर यह चीज़ मुझे नापसन्द नहीं होती तो मुझसे ज़्यादा होशियार कौन होता लेकिन मेरा नज़रिया यह है के हर मक्रो फ़रेब गुनाह है आौर हर गुनाह परवरदिगार के एहकाम की नाफ़रमानी है। हर ग़द्दार के हाथ में क़यामत के दिन एक झण्डा दे दिया जाएगा जिससे उसे अरसए महशर में पहचान लिया जाएगा। ख़ुदा की क़सम मुझे न इन मक्कारियों से ग़फ़लत में डाला जा सकता है और न इन सख़्ितयों से दबाया जा सकता है।

201-आपका इरशादे गिरामी
(जिसमें वाज़ेह रास्तों पर चलने की नसीहत फ़रमाई गई है)

अय्योहन्नास! देखो हिदायत के रास्ते पर चलने वालों की क़िल्लत की बिना पर चलने से मत घबराओ के लोगों ने एक ऐसे दस्तरख़्वान पर इज्तेमाअ कर लिया है जिसमें सेर होने की मुद्दत बहुत कम है और भूक की मुद्दत बहुत तवील है।
लोगों! याद रखो के रज़ामन्दी और नाराज़गी ही सारे इन्सानों को एक नुक्ते पर जमा कर देती है, नाक़ाए स्वालेह के पैर एक ही इन्सान ने काटे थे लेकिन अल्लाह ने अज़ाब सब पर नाज़िल कर दिया के बाक़ी लोग इसके अमल से राज़ी थे और फ़रमाया के इन लोगों ने नाक़े के पैर काट डाले और आखि़र में मज़ामत का शिकार हो गए। इनका अज़ाब यह था के ज़मीन झिटके से घड़घड़ाने लगी जिस तरह के ज़म ज़मीन में लोहे की तपती हुई फाली चलाई जाती है।
लोगों! देखो जो रौशन रास्ते पर चलता है वह सरचश्मे तक पहुंच जाता है और जो इसके खि़लाफ़ करता है वह गुमराही में पड़ जाता है।

(((- खुली हुई बात है के जिसे परवरदिगार ने नफ़्से रसूल (स0) क़रार दिया हो और ख़ुद सरकारे दो आलम (स0) ने बाबे मदीनतुल इल्म क़रार दिया हो उससे ज़्यादा होशियार, होशमन्द और साहेबे इल्म व हुनर कौन हो सकता है। लेकिन इसके बावजूद बाज़ नादान अफ़राद का ख़याल है के माविया ज्यादा होशियार और ज़ीरक था और इसीलिये उसकी सियासत ज़्यादा कामयाब थी, हालांके इसका राज़ होशियारी और होशमन्दी नहीं है, बल्कि इसका राज़ मक्कारी और ग़द्दारी है के माविया मक़सद के हुसूल के लिये हर वसीले को जाएज़ क़रार देता था और इसका मक़सद भी सिर्फ़ हुसूले इक़्तेदार और तख़्ते हुकूमत था और मौलाए कायनात की निगाह में न मक़सद वसीले के जवाज़ का ज़रिया था और न आपका मक़सद इक़तेदारे दुनिया का हुसूल था। आपका मक़सद दीने ख़ुदा का क़याम था और इस राह में इन्सान को हर क़दम फूंक-फूंक कर उठाना पड़ता है और हर सांस में मर्ज़ीए परवरदिगार का ख़याल रखना पड़ता है।))).

202-आप का इरषादे गिरामी

कहा जाता है के यह कलेमाते सय्येदतुल निसाइल आलमीन फ़ातेमा ज़हरा (स0) के दफ़्न के मौक़े पर पैग़म्बरे इस्लाम (स0) से राज़दाराना गुफ़्तगू के अन्दाज़ से कहे गये थे।
सलाम हो आप पर ऐ ख़ुदा के रसूल (स0)! मेरी तरफ़ से और आपकी उस दुख़्तर की तरफ़ से जो आपके जवार में नाज़िल हो रही है और बहुत जल्दी आप से मुलहक़ हो रही है।
या रसूलल्लाह! मेरी क़ूवते सब्र आपकी मुन्तख़ब रोज़गार (बरगुज़ीदा) दुख़्तर के बारे में ख़त्म हुई जा रही है और मेरी हिम्मत साथ छोड़े दे रही है सिर्फ़ सहारा यह है के मैंने आपके फ़िराक़ के अज़ीम सदमे और जानकाह हादसे पर सब्र कर लिया है तो अब भी सब्र करूंगा के मैंने ही आपको क़ब्र में उतारा था और मेरे ही सीने पर सर रखकर आपने इन्तेक़ाल फ़रमाया था। बहरहाल मैं अल्लाह ही के लिये हूँ और मुझे भी उसी की बारगाह में वापस जाना है।
आज अमानत वापस चली गई और जो चीज़ मेरी तहवील में थी वह मुझसे छुड़ा ली गई। अब मेरा रंज व ग़म दाएमी है और मेरी रातें नज़रबेदारी हैं जब तक मुझे भी परवरदिगार उस घर तक न पहुंचा दे जहाँ आपका क़याम है।
अनक़रीब आपकी दुख़्तरे नेक अख़्तर उन हालात की इत्तेलाअ देगी के किस तरह आपकी उम्मत ने उस पर ज़ुल्म ढाने के लिये इत्तेफ़ाक़ कर लिया था। आप उससे मुफ़स्सिल सवाल फ़रमाएं और जुमला हालात दरयाफ़्त करें।
अफ़सोस के यह सब उस वक़्त हुआ है जब आपका ज़माना गुज़रे देर नहीं हुई है और अभी आपका तज़किरा बाक़ी है। मेरा सलाम हो आप दोनों पर, उस “ाख़्स का सलाम जो रूख़सत करने वाला है और दिले तंग व मलोल नहीं है। मैं अगर इस क़ब्र से वापस चला जाऊं तो यह किसी दिले तंगी का नतीजा नहीं है और अगर यहीं ठहर जाऊं तो यह उस वादे के बेएतबारी नहीं है जो परवरदिगार ने सब्र करने वालों से किया है।

203- आपका इरषादे गिरामी(दुनिया से परहेज़ और आख़ेरत की तरग़ीब के बारे में)

लोगों! यह दुनिया एक गुज़रगाह है क़रार की मन्ज़िल आखि़रत ही है लेहाज़ा इस गुज़रगाह से वहाँ का सामान लेकर आगे बढ़ो और उसके सामने अपने परदए राज़ को चाक मत करो जो तुम्हारे इसरार से बाख़बर है। दुनिया से अपने दिलों को बाहर निकाल लो क़ब्ल इसके के तुम्हारे बदन को यहाँ से निकाला जाए, यहाँ सिर्फ़ तुम्हारा इम्तेहान लिया जा रहा है वरना तुम्हारी खि़लक़त किसी और जगह के लिये है। कोई भी “ाख़्स जब मरता है तो इधर वाले यह सवाल करते हैं के क्या छोड़कर गया है और उधर के फ़रिष्ते यह सवाल करते हैं के क्या लेकर आया है? अल्लाह तुम्हारा भला करे। कुछ वहां भेज दो जो मालिक के पास तुम्हारे क़र्ज़े के तौर पर रहेगा और सब यहीं छोड़कर मत जाओ के तुम्हारे ज़िम्मे एक बोझ बन जाए।

204-आपका इरषादे गिरामी(जिसके ज़रिये अपने असहाब को आवाज़ दिया करते थे)

ख़ुदा तुम पर रहम करे, तैयार हो जाओ के तुम्हें कूच करने के लिये पुकारा जा चुका है और ख़बरदार दुनिया की तरफ़ ज़्यादा तवज्जो मत करो, जो बेहतरीन ज़ादे राह तुम्हारे सामने है उसे लेकर मालिक की बारगाह की तरफ़ पलट जाओ के तुम्हारे सामने एक बड़ी दुष्वारगुज़ार घाटी है और चन्द ख़तरनाक और ख़ौफ़नाक मन्ज़िलें हैं जिनपर बहरहाल वारिद होना है और वहीं ठहरना भी है।

(((-इस्लाम का मुद्दआ तर्के दुनिया नहीं है और न वह यह चाहता है के इन्सान रहबानियत की ज़िन्दगी गुज़ारे, इस्लाम का मक़सद सिर्फ़ यह है के दुनिया इन्सान की ज़िन्दगी का वसीला रहे और इसके दिल का मकीन न बनने पाए वरना हुब्बे दुनिया इन्सान को ज़िन्दगी के हर ख़तरे से दो-चार कर सकती है और उसे किसी भी गढ़े में गिरा सकती है-)))

और यह याद रखो के मौत की निगाहें तुमसे क़रीबतर हो चुकी हैं और तुम उसके पन्जों में आ चुके हो जो तुम्हारे अन्दर गड़ाए जा चुके है। मौत के “ादीदतरीन मसाएल और दुष्वारतरीन मुष्किलात तुम पर छा चुके हैं, अब दुनिया के ताल्लुक़ात को ख़त्म करो और आखि़रत के ज़ादेराह तक़वा के ज़रिये अपनी ताक़त का इन्तेज़ाम करो।
(वाज़ेह रहे के इससे पहले भी इस क़िस्म का एक कलाम दूसरी रिवायत के मुताबिक़ गुज़र चुका है)

205- आपका इरषादे गिरामी
(जिसमें तल्हा व ज़ुबैर को मुख़ातिब बनाया गया है जब इन दोनों ने बैयत के बावजूद मष्विरा न करने और मदद न मांगने पर आपसे नाराज़गी का इज़हार किया)

तुमने मामूली सी बात पर तो ग़ुस्से का इज़हार कर दिया लेकिन बड़ी बातों को पसे पुष्त डाल दिया, क्या तुम यह बता सकते हो के तुम्हारा कौन सा हक़ ऐसा है जिससे मैंने तुमको महरूम कर दिया है? या कौन सा हिस्सा ऐसा है जिसपर मैंने क़ब्ज़ा कर लिया है? या किसी मुसलमान ने कोई मुक़द्दमा पेष किया हो और मैं उसका फ़ैसला न कर सका हूँ या उससे नावाक़िफ़ रहा हूँ या इसमें किसी ग़लती का षिकार हो गया हूँ।
ख़ुदा गवाह है के मुझे न खि़लाफ़त की ख़्वाहिष थी और न हुकूमत की एहतियाज, तुम्हीं लोगों ने मुझे इस अम्र की दावत दी और इस पर आमादा किया। इसके बाद जब यह मेरे हाथ में आ गई तो मैंने इस सिलसिले में किताबे ख़ुदा और इसके दस्तूर पर निगाह की और जो उसने हुक्म दिया था उसी का इत्तेबाअ किया और इस तरह रसूले अकरम (स0) की सुन्नत की इक़्तेदा की। जिसके बाद न मुझे तुम्हारी राय की कोई ज़रूरत थी और न तुम्हारे अलावा किसी की राय की और न मैं किसी हुक्म से जाहिल था के तुमसे मषविरा करता या तुम्हारे अलावा दीगर बरादराने इस्लाम से, और अगर ऐसी कोई ज़रूरत होती तो मैं न तुम्हें नज़रअन्दाज़ करता और न दीगर मुसलमानों को। रह गया यह मसला के मैंने बैतुलमाल की तक़सीम में बराबरी से काम लिया है तो यह न मेरी ज़ाती राय है और न इस पर मेरी ख़्वाहिष की हुक्मरानी है बल्कि मैंने देखा के इस सिलसिले में रसूले अकरम (स0) की तरफ़ से हमसे पहले फ़ैसला हो चुका है तो ख़ुदा के मुअय्यन किये हुए हक़ और उसके जारी किये हुए हुक्म के बाद किसी की कोई ज़रूरत ही नहीं रह गई है।
ख़ुदा “ााहिद है के इस सिलसिले में न तुम्हें षिकायत का कोई हक़ है और न तुम्हारे अलावा किसी और को, अल्लाह हम सबके दिलों को हक़ की राह पर लगा दे और सबको सब्र व “ाकीबाई की तौफ़ीक़ अता फ़रमाए।
ख़ुदा उस “ाख़्स पर रहमत नाज़िल करे जो हक़ को देख ले तो उस पर अमल करे या ज़ुल्म को देख ले तो उसे ठुकरा दे और साहेबे हक़ के हक़ में इसका साथ दे।

(((- अमीरूल मोमेनीन (अ0) ने इन तमाम पहलुओं का तज़किरा इसलिये किया है ताके तल्हा व ज़ुबैर की नीयतों का मुहासेबा किया जा सके और उनके अज़ाएम की हक़ीक़तों को बेनक़ाब किया जा सके के मुझसे पहले ज़मानों में यह तमाम नक़ाएस मौजूद थे, कभी हुक़ूक़ की पामाली हो रही थी, कभी इस्लामी सरमाये को अपने घराने पर तक़सीम किया जा रहा था। कभी मुक़द्देमात में फ़ैसले से आजिज़ी का एतराफ़ था और कभी सरीही तौर पर ग़लत फ़ैसला किया जा रहा था। लेकिन इसके बावजूद तुम लोगों की रगे हमीयत व ग़ैरत को कोई जुम्बिष नहीं हुई और आज जबके ऐसा कुछ नहीं है तो तुम बग़ावत पर आमादा हो गए हो। इसका मतलब यह है के तुम्हारा ताल्लुक़ दीन और मज़हब से नहीं है। तुम्हें सिर्फ़ अपने मफ़ादात से ताल्लुक़ है जब तक यह मफ़ादात महफ़ूज़ थे, तुमने हर ग़लती पर सुकूत इख़्तेयार किया और आज जब मफ़ादात ख़तरे में पड़ गए हैं तो “ाोरष और हंगामे पर आमादा हो गए हो।-)))

206-आपका इरषादे गिरामी(जब आपने जंगे सिफ़्फ़ीन के ज़माने में अपने बाज़ असहाब के बारे में सुना के वह अहले “ााम को बुरा भला कह रहे हैं)

मैं तुम्हारे लिये इस बात को नापसन्द करता हूँ के तुम गालियां देने वाले हो जाओ, बेहतरीन बात यह है के तुम उनके आमाल और हालात का तज़किरा करो ताके बात भी सही रहे और हुज्जत भी तमाम हो जाए और फिर गालियां देने के बजाए यह दुआ करो के ख़ुदाया! हम सबके ख़ूनों को महफ़ूज़ कर दे और हमारे मुआमलात की इस्लाह कर दे और उन्हें गुमराही से हिदायत के रास्तु पर लगा दे ताके नावाक़िफ़ लोग हक़ से बाख़बर हो जाएं और हर्फ़े बातिल कहने वाले अपनी गुमराही और सरकषी से बाज़ आ जाएं।

(((-यह उस अम्र की तरफ़ इषारा है के मकान की वुसअत ज़ाती अग़राज़ के लिये हो तो उसका नाम दुनियादारी है, लेकिन अगर इसका मक़सद मेहमान नवाज़ी, सिलाए रहम, अदाएगीए हुक़ूक़, हिफ़ज़े आबरू, इज़हारे अज़मत व मज़हब हो तो इसका कोई ताल्लुक़ दुनियादारी से नहीं है और यह दीन व मज़हब ही का एक “ाोबा है, फ़र्क़ सिर्फ़ यह है के यह फ़ैसला नीयतों से होगा और नीयतों का जानने वाला सिर्फ़ परवरदिगार है कोई दूसरा नहीं-)))

207- आपका इरषादे गिरामी
(जंगे सिफ़्फ़ीन के दौरान जब इमाम हसन (अ0) को मैदाने जंग की तरफ़ सबक़त करते हुए देख लिया)
देखो! इस फ़रज़न्द को रोक लो कहीं इसका सदमा मुझे बेहाल न कर दे, मैं इन दोनों (हसन (अ0) व हुसैन (अ0)) को मौत के मुक़ाबले ज़्यादा अज़ीज़ रखता हूँ। कहीं ऐसा न हो के इनके मर जाने से नस्ले रसूल (स0) मुन्क़ता हो जाए।
सय्यद रज़ी - ‘‘अमलको आनी हाज़ल ग़ुलाम’’ अरब का बलन्दतरीन कलाम और फ़सीहतरीन मुहावरा है।

208-आपका इरषादे गिरामी(जो उस वक़्त इरषाद फ़रमाया जब आपके असहाब में तहकीम के बारे में इख़्तेलाफ़ हो गया था)

लोगों! याद रखो के मेरे मामलात तुम्हारे साथ बिल्कुल सही चल रहे थे जब तक जंग ने तुम्हें ख़स्ताहाल नहीं कर दिया था, इसके बाद मुआमलात बिगड़ गए हालांके ख़ुदा गवाह है के अगर जंग ने तुमसे कुछ को ले लिया और कुछ को छोड़ दिया तो इसकी ज़द तुम्हारे दुष्मन पर ज़्यादा ही पड़ी है।
अफ़सोस के मैं कल तुम्हारा हाकिम था और आज महकूम बनाया जा रहा हूँ। कल तुम्हें मैं रोका करता था और आज तुम मुझे रोक रहे हो। बात सिर्फ़ यह है के तुम्हें ज़िन्दगी ज़्यादा प्यारी है और मैं तुम्हें किसी ऐसी चीज़ पर आमादा नहीं कर सकता हूँ जो तुम्हें नागवार और नापसन्द हो।

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