209-आपका इरशादे गिरामी(जब बसरा में अपने सहाबी अला बिन ज़ियाद हारिसी के घर अयादत के लिये तशरीफ़ ले गए और उनके घर की वुसअत का मुशाहेदा फ़रमाया)
तुम इस दुनिया में इस क़द्र वसीअ मकान को लेकर क्या करोगे जबके आखि़रत में इसकी एहतियाज ज़्यादा है। तुम अगर चाहो तो इसके ज़रिये आखि़रत का सामान कर सकते हो के इसमें मेहमानों की ज़ियाफ़त करो। क़राबतदारों से सिलए रहम करो और मौक़े व महल के मुताबिक़ हुक़ूक़ को अदा करो के इस तरह आखि़रत को हासिल कर सकते हो।
(((-यह इस अम्र की तरफ़ इषारा है के मकान की वुसअत ज़ाती आराज़ के लिये हो तो उसका नाम दुनियादारी है, लेकिन अगरर इसका मक़सद मेहमान नवाज़ी, सिलए अरहाम, अदाएगीए हुक़ूक़ हिफ़्ज़े आबरू, इज़हारे अज़मत व मज़हब हो तो इसका कोई ताल्लुक़ दुनियादारी से नहीं है और यह दीन व मज़हब ही का एक ‘ाोबा है, फ़र्क़ सिर्फ़ यह है के यह फ़ैसला नीयतों से होगा और नीयतों का जानने वाला सिर्फ़ परवरदिगार है कोई दूसरा नहीं है।-)))
यह सुनकर अला बिन ज़ियाद ने अर्ज़ की के या अमीरूल मोमेनीन (अ0) मैंं अपने भाई आसिम बिन ज़ियाद की शिकायत करना चाहता हूँ, फ़रमाया के उन्हें क्या हो गया है? अर्ज़ की के उन्होंने एक अबा ओढ़ ली है और दुनिया को यकसर तर्क कर दिया है, फ़रमाया उन्हें बुलाओ, आसिम हाज़िर हुए तो आपने कहा के-
ऐ दुश्मने जान, तुझे ‘ौतान ख़बीस ने गिरवीदा बना लिया है, तुझे अपने अहल व अयाल पर क्यों रहम नहीं आता है, क्या तेरा ख़याल यह है के ख़ुदा ने पाकीज़ा चीज़ों को हलाल तो किया है लेकिन वह उनके इस्तेमाल को नापसन्द करता है, तू ख़ुदा की बारगाह में इससे ज़्यादा पस्त है।
आसिम ने अर्ज़ की के या अमीरूल मोमेनीन (अ0)! आप भी तो खुरदुरा लिबास, मामूली खाने पर गुज़ारा कर रहे हैं, फ़रमाया, तुम पर हैफ़ है के तुमने मेरा क़यास अपने ऊपर कर लिया है जबके परवरदिगार ने आईम्माए हक़ पर फ़र्ज़ कर दिया है के अपनी ज़िन्दगी का पपैमाना कमज़ोरतरीन इन्सानों को क़रार दें ताकि फ़क़ीर अपने फ़क्ऱ की बिना पर किसी पेच व ताब का शिकार न हो।
210-आपका इरशादे गिरामी(जब किसी ‘ाख़्स ने आपसे बिदअती अहादीस और मुतज़ाद रिवायात के बारे में सवाल किया)
लोगों के हाथों में हक़ व बातिल, सिद्क़ व कज़्ब नासिख़ व मन्सूख़, आम व ख़ास, मोहकम व मुतशाबेह और हक़ीक़त व वहम सब कुछ है और मुझ पर बोहतान लगाने का सिलसिला रसूले अकरम (स0) की ज़िन्दगी ही से ‘ाुरू हो गया था जिसके बाद आपने मिम्बर से एलान किया था के ‘‘जिस ‘ाख़्स ने भी मेरी तरफ़ से ग़लत बात बयान की उसे अपनी जगह जहन्नम में बना लेना चाहिये’’
याद रखो के हदीस के बयान वाले चार तरह के अफ़राद होते हैं जिनकी पांचवी कोई क़िस्म नहीं है-
एक वह मुनाफ़िक़ है जो ईमान का इज़हार करता है, इस्लाम की वज़ा क़ता इख़्तेयार करता है लेकिन गुनाह करने और अफ़्तरा में पड़ने से परहेज़ नहीं करता है। अगर लोगों को मालूम हो जाए के यह मुनाफ़िक़ और झूठा है तो यक़ीनन उसके बयान की तस्दीक़ न करेंगे लेकिन मुश्किल यह है के वह समझते हैं के यह सहाबी है, इसने हुज़ूर को देखा है, उनके इरशाद को सुना है और उनसे हाासिल किया है और इस तरह उसके बयान को क़ुबूल कर लेते हैं जबके ख़ुद परवरदिगार भी मुनाफ़िक़ीन के बारे में ख़बर दे चुका है और उनके औसाफ़ का तज़किरा कर चुका है और यह रसूले अकरम (स0) के बाद भी बाक़ी रह गए थे, और गुमराही के पेशवाओं और जहन्नुम के दाइयों की तरफ़ इसी ग़लत बयाानी और इफ़्तरा परवाज़ी से तक़र्रब हासिल करते थे। वह उन्हें ओहदे देते रहे और लोगांे की गर्दनों पर हुक्मरान बनाते रहे और उन्हीं के ज़रिये दुनियाा को खाते रहे और लोग तो बहरहाल बादशाहों और दुनियादारों ही के साथ रहते हैं, अलावा उनके जिन्हें अल्लाह इस ‘ार से महफ़ूज़ कर ले।
(((-वाज़े रहे के इस्लामी उलूम में इल्मुल रेजाल आौर अल्मे दरायत का होना इस बात की दलील है के सारा आलमे इस्लाम इस नुक्ते पर मुत्तफ़िक़ है के रिवायात क़ाबिले क़ुबूल भी हैं और नाक़ाबिले क़ुबूल भी, और रावी हज़रात सक़ा और मोतबर भी हैं और ग़ैर सक़ा और ग़ैर मोतबर भी, इसके बाद अदालत सहाबा और एतबार, तमाम ओलमा का अक़ीदा, एक मज़हके के अलावा कुछ नहीं है।
हज़रत ने यह भी वाज़ेह कर दिया है के मुनाफ़िक़ीन का कारोबार हमेशा हुकाम की नालाएक़ी से चलना है वरना हुकाम दयानतदार हों और ऐसी रिवायात के ख़रीदार न बनें ता मुनाफ़ेक़ीन का कारोबार एक दिन में ख़त्म हो सकता है।-)))
हज़रत ने यह भी वाज़ेह कर दिया है के मुनाफ़िक़ीन का कारोबार हमेशा हुकाम की नालाएक़ी से चलना है वरना हुकाम दयानतदार हों और ऐसी रिवायात के ख़रीदार न बनें ता मुनाफ़ेक़ीन का कारोबार एक दिन में ख़त्म हो सकता है।-)))
चार में से एक क़िस्म यह हुआ और दूसरा ‘ाख़्स वह है जिसने रसूले अकरम (स0) से कोई बात सुनी है लेकिन उसे सही तरीक़े से महफ़ूज़ नहीं कर सका है (याद नहीं रख सका है) और इसमें सहो का शिकार हाो गया है, जान बूझकर झूठ नहीं बोलता है, जो कुछ उसके हाथ में है उसी की रिवायत करता है आौर उसी पर अमल करता है और यह कहता है के यह मैंने रसूले अकरम (स0) से सुना है हालांके अगर मुसलमानों को मालूम हो जाए के इससे ग़लती हो गई है तो हरगिज़ इसकी बात न मानेंगे बल्कि अगर उसे ख़ुद भी मालूम हो जाए के यह बात इस तरह नहीं है तो तर्क कर देगा और नक़ल नहीं करेगाा।
तीसरी क़िस्म उस ‘ाख़्स की है जिसने रसूले अकरम (स0) को हुक्म देते सुना है लेकिन हज़रत ने जब मना किया तो उसे इत्तेला नहीं हो सकी या हज़रत को मना करते देखा है फिर जब आपने दोबारा हुक्म दिया तो इत्तेलाअ न हो सकी, इस ‘ाख़्स ने मन्सूख़ को महफ़ूज़ कर लिया है और नासिख़ को महफ़ूज़ नहीं कर सका है के अगर उसे मालूम हो जाए के यह हुक्म मन्सूख़ हो गया है तो उसे तर्क कर देगा और अगर मुसलमानों को मालूम हो जाए के इसने मन्सूख़ की रिवायत की है तो वह भी उसे नज़रअन्दाज़ कर देंगे।
चैथी क़िस्म उस ‘ाख़्स की है जिसने ख़ुदा व रसूल (स0) के खि़लाफ़ ग़लत बयानी से काम नहीं लिया है और वह ख़ौफ़े ख़ुदा और ताज़ीमे रसूले ख़ुदा के ऊपर झूठ का दुश्मन भी है और इससे भूल-चूक भी नहीं हुई है बल्कि जैसे रसूले अकरम (स0) ने फ़रमाया है वैसे ही महफ़ूज़ रखा है। न उसमें किसी तरह का इज़ाफ़ा किया है और न कमी की है नासिख़ ही को महफ़ूज़ किया है और उसी पर अमल किया है और मन्सूख़ को भी अपनी नज़र में रखा है और उससे इजतेनाब बरता है, ख़ास व आम और मोहकम व मुतशाबेह को भी पहचानता है और उसी के मुताबिक़ अमल भी करता है।
लेकिन मुश्किल यह हैे के कभी कभी रसूले अकरम (स0) के इरशादात के दो रूख़ होते थे, बाज़ का ताल्लुक़ ख़ास अफ़राद (या ख़ास वक़्त) से होता था और कुछ आम होते थे (कुछ वह कलेमात जो तमाम औक़ात और तमाम अफ़राद के मुताल्लिक़) और इन कलेमात को वह ‘ाख़्स भी सुन लेता था जिसे यह नहीं मालूम था के ख़ुदा और रसूल का मक़सद क्या है तो यह सुनने वाले उसे सुन तो लेते थे और कुछ इसका मफ़हूम भी क़रार दे लेते थे मगर इसके हक़ीक़ी मानी और मक़सद और वजह से नावाक़िफ़ होते थे और तमामम असहाबे रसूले अकरम (स0) की हिम्मत भी नहीं थी के आपसे सवाल कर सकें और बाक़ायदा तहक़ीक़ कर सकें बल्कि इस बात का इन्तेज़ार किया करते थे के कोई सहराई या परदेसी आाकर आपसे सवाल करे तो वह भी सुन लें, यह सिर्फ़ मैं थाा के मेरे सामने से कोई ऐसी बात नहीं गुज़रती थी मगर यह के मैं दरयाफ़्त भी कर लेताा था और महफ़ूज़ भी कर लेता था।
यह हैं लोगों के दरमियान इख़्तेलाफ़ात के असबाब और रिवायात में तज़ाद के अवामिल व मोहर्रकात।
(((-जिस तरह एक इन्सान की ज़िन्दगी के मुख़्तलिफ़ रूख़ होते हैं और बाज़ औक़ात एक रूख़ दूसरे से बिल्कुल अजनबी होता है के बेख़बर इन्सान इसे दोरंगियों मंे ‘ाामिल कर देता है। इसी तरह मुआसेरा और रिवायात के भी मुख़्तलिफ़ रूख़ होते हैं और बाज़ औक़ात एक रूख दूसरे से बिलकुल अजनबी और जुदागाना होता है और हर रूख़ के लिये अलग मफ़हूम होताा है और हर रूख़ के अलग एहकाम होते हैं। अब अगर कोई ‘ाख़्स इस हक़ीक़त से बाख़बर नहीं होता है तो वह एक ही रूख़ या एक ही रिवायत को ले उड़ता है और वसूक़ व एतबार के साथ यह बयाान करता है के मैंने ख़ुद रसूले अकरम (स0) से सुना है मगर उसे यह ख़बर नहीं होती है के ज़िन्दगी का कोई दूसरा रूख़ भी है, या इस बयान का कोई और भी पहलू है जो क़ब्ल याा बाद दूसरे मनासिब मौक़े पर बयान हो चुका है या बयान होने वाला है और इस तरह इश्तेहाबात का एक सिलसिला ‘ाुरू हो जाता है और दरहक़ीक़त रिवयात में गुम हो जाती है। चूंके दीदा व दानिस्ता कोई गुनाह या इश्तेबाह नहीं होता है।-)))
211- आपके ख़ुत्बे का एक हिस्सा
(हैरत अंगेज़ तख़लीक़े कायनात के बारे में)
(हैरत अंगेज़ तख़लीक़े कायनात के बारे में)
यह परवरदिगार के इक़्तेदार की ताक़त और उसकी सनाई (सनअत) की हैरतअंगेज़ लताफ़त है के उसने गहरे और तलातुम समन्दर में एक ख़ुश्क और बेहरकत ज़मीन को पैदा कर दिया और फ़िर बख़ारात के तबक़ात बनाकर (पानी की तहों पर तहें चढ़ाकर जो आपस में मिली हुई थीें) उन्हें शिगाफ़्ता करके सात आसमाानों की ‘ाक्ल दे दी जो उसके अम्र से ठहरे हुए हैं और अपनी हदों पर क़ायम हैं, फ़िर ज़मीन काो यूँ गाड़ दिया के उसे सब्ज़ रंग का गहरा समन्दर उठाए हुए है जो क़ानूने इलाही के आगे मुसख़्ख़र है, उसके अम्र का ताबे है और उसकी हैबत के सामने सरनिगूँ है और उसके ख़ौफ़ से इसका बहाव थमा हुआ है।
फ़िर पत्थरों, टीलों और पहाड़ों को ख़ल्क़ करके उन्हेें उनकी जगहों पर गाड़ दिया और उनकी मन्ज़िलों पर मुस्तक़र कर दिया के अब उनकी बलन्दियां फ़िज़ाओं से गुज़र रही हैं और उनकी जड़ें पानी के अन्दर रासेख़ हैं, उनके पहाड़ों को हमवार ज़मीनों से ऊंचा किया और उनके सुतूनों को एतराफ़ के फै़लाव और मराकज़ के ठहराव में नस्ब कर दिया। अब उनकी चोटियां बलन्द हैं और उनकी बलन्दियां तवीलतरीन हैं, इन्हीं पहाड़ों को ज़मीन का सुतून क़रार दिया है और इन्हीं को कील बनाकर गाड़ दिया है जिनकी वजह से ज़मीन हरकत के बाद साकिन हो गई और न अहले ज़मीन को लेकर किसी तरफ़ झुक सकी और न उनके बोझ से धंस सकी और न अपनी जगह से हट सकी।
पाक व बेनियाज़ है वह मालिक जिसने पानी के तमोज के बावजूद उसे रोक रखा है और एतराफ़ की तरी के बावजूद उसे ख़ुश्क बना रखा है और फिर उसे अपनी मख़लूक़ात के लिये गहवारा और फ़र्श की हैसियत दे दी है, उस गहरे समन्दर के ऊपर जो ठहरा हुआ है और बहता नहीं है और एक मक़ाम पर क़ायम है किसी तरफ़ जाता नहीं है हालांके उसे तेज़ व तन्द हवाएं हरकत दे रही हैं और बरसने वाले बादल उसे मथकर उससे पानी खींचते रहते हैं- ‘‘इन तमाम बातों में इबरत का सामान है उन लोगों के लिये जिनके अन्दर ख़ौफ़े ख़ुदा पाया जाता है।
(((-कितना हसीन निज़ामे कायनात है के तलातुम पानी पर ज़मीन क़ायम है और ज़मीन के ऊपर हवा का दबाव क़ायम है और इन्सान इस तीन मन्ज़िला इमारत में दरम्यानी तबक़े पर इस तरह सुकूनत पज़ीद है के उसके ज़ेरे क़दम ज़मीन और पानी है और इसके बालाए सर फ़िज़ा और हवा है। हवा उसकी ज़िन्दगी के लिये सांसें फ़राहम कर रही है और ज़मीन उसके सुकून व क़रार का इन्तेज़ाम करके उसे बाक़ी रखे हुए हैं। पानी इसकी ज़िन्दगी का क़ेवाम है और समन्दर उसकी ताज़गी का ज़रिया। कोई ज़र्राए कायनात उसकी खि़दमत से ग़ाफ़िल नहीं है और कोई अनासिर अपनंे से अशरफ़ मख़लूक़ की इताअत से मुनहरिफ़ नहीं है। ताके वह भी अपनी अशरफ़ीयत की आबरू का तहफ़्फ़ुज़ करे और सारी कायनात से बालातर ख़ालिक़ व मालिक की इताअत व इबाादत में हमातन मसरूफ़ रहे।-)))
212- आपके ख़ुतबे का एक हिस्सा(जिसमें अपने असहाब को अहले ‘ााम से जेहाद करने पर आमादा किया है)
ख़ुदाया! तेरे जिस बन्दे ने भी मेरी आदिलाना गुफ्तगू (जिसमें किसी तरह का ज़ुल्म नहीं है) और मसलेहाना नसीहत (जिसमें किसी तरह का फ़साद नहीं है) सुनने के बाद भी तेरे दीन की नुसरत से इन्हेराफ़ किया और तेरे दीन के एज़ाज़ में कोताही की है, मैं उसके खि़लाफ़ तुझे गवाह क़रार दे रहा हूँ के तुझसे बालातर कोई गवाह नहीं है और फ़िर तेरे तमाम सकाने अर्ज़ व समा को गवाह क़रार दे रहा हूँ। इसके बाद तू ही इनकी नुसरत व मदद से बेनियाज़ भी है और हर एक के गुनाह का मवाख़ेज़ा करने वाला भी है।
213-आपके ख़ुत्बे का एक हिस्सा(परवरदिगार की तमजीद उसकी ताज़ीम के बारे में)
सारी तारीफ़ें उस अल्लााह के लिये हैं जो मख़लूक़ात की मुशाबेहत से बलन्दतर और तौसीफ़ करने वालों की गुफ़्तगू से बालातर है। वह अपने अजीब व ग़रीब लज़्म व नस्ख़ की बदौलत देखने वालों के सामने भी है और अपने जलाल व इज़्ज़त की बिना पर मुफ़क्किरीन की फ़िक्र से पोशीदा भी है। वह आलिम है बग़ैर इसके के किसी से कुछ सीखे या इल्म में इज़ाफ़ा और कहीं से इस्तेफ़ादा करे (उसका इल्म किसी इस्तेफ़ादे का नतीजा भी नहीं है) तमाम उमूर का तक़दीर साज़ है और इस सिलसिले में (मुशीर, तदबीर) और सोच बिचार काा माोहताज भी नहीं है। तारीकियां उसे ढांप नहीं सकती हैं और रोशनियों से वह किसी तरह का कस्बे नूर नहीं है, (न वह रौशनियों से कस्बे ज़िया करता है) न रात उस पर ग़ालिब आ सकती है और न दिन उसके ऊपर से गुज़र सकता है। उसका इदराक आंखों का मोहताज नहीं है और उसका इल्म इताअत का नतीजा नहीं है।
उसने पैग़म्बर (स0) को एक नूर देकर भेजा है और उन्हें सबसे पहले मुन्तख़ब क़रार दिया है, उनके ज़रिये परागन्दियों को जमा किया है (उनके ज़रिये से तमाम परागन्दियों और परेशानियों को दूर किया और ग़लबा पाने वालों को क़ाबू में रखा है) दुश्वारियों को आसान किया है और नाहमवारियों को हमवार बनाया है। यहाँतक के गुमराहियों को दाएं, बाएं हर तरफ़ से दूर कर दिया है।
(((-सही मुस्लिम किताबुल फ़ज़ाएल में सरकारे दो आलम (स0) का यइ इरशाद दर्ज है के अल्लाह ने औलादे इस्माईल में कोनाना का इन्तेखा़ब किया है और फिर कुनाना में क़ुरैश को मुन्तक़ब क़रार दिया है, क़ुरैश में बनी हाशिम मुनतख़ब हैं और बनी हाशिम में मैं। लेहाज़ा दुनिया की ‘ाख़्िसयत का सरकारे दोआलम (स0) और अहलेबैत (अ0) पर क़यास नहीं किया जा सकता है।-)))
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