Saturday, May 28, 2011

Nahjul Balagha Hindi Aqwal 203-243 नहजुल बलाग़ा हिन्दी अक़वाल 203-243

203- ख़बरदार किसी शुक्रिया अदा न करने वाले की नालायक़ी तुम्हें कारे ख़ैर से बद्दिल न बना दे, हो सकता है के तुम्हारा शुक्रिया वह अदा कर दे जिसने इस नेमत से कोई फ़ायदा भी नहीं उठाया है और जिस क़द्र कुफ्ऱाने नेमत करने वाले ने तुम्हारा हक़ ज़ाया किया है उस शुक्रिया अदा करने वाले के शुक्रिया के बराबर हो जाए और वैसे भी अल्लाह नेक काम करने वालों को दोस्त रखता है।
(((अव्वलन तो कारे ख़ैर में शुक्रिया का इन्तेज़ार ही इन्सान के एख़लास को मजरूह बना देता है और उसके अमल का वह मरतबा नहीं रह जाता है जो फ़ीसबीलिल्लाह अमल करने वाले अफ़राद का होता है जिसकी तरफ़ क़ुराने मजीद ने सूराए मुबारका दहर में इशारा किया है इसके बाद अगर इन्सान फ़ितरत से मजबूर है और फ़ितरी तौर पर शुक्रिया का ख़्वाहिशमन्द है तो मौलाए कायनात ने इसका भी इशारा दे दिया के हो सकता है के यह कमी दूसरे अफ़राद की तरफ़ से पूरी हो जाए और वह तुम्हारे कारे ख़ैर की क़द्रदानी करके शुक्रिया की कमी का तदारूक कर दें।)))
204- हर ज़र्फ़ अपने सामान के लिये तंग हो सकता है, लेकिन इल्म का ज़र्फ़ इल्म के एतबार से वसीअतर होता जाता है।
((( इल्म का ज़र्फ़ अक़्ल है और अक़्ल ग़ैर माद्दी होने के एतबार से यूँ भी बेपनाह वुसअत की मालिक है, इसके बाद मालिक ने इसमें यह सलाहियत भी रखी है के जिस क़द्र इल्म में इज़ाफ़ा होता जाएगा उसकी वुसअत किसी मरहले पर तमाम होने वाली नहीं है।)))
205-सब्र करने वाले का उसकी क़ूवते बर्दाश्त पर पहला अज्र यह मिलता है के लोग जाहिल के मुक़ाबले में इसके मददगार हो जाते हैं।
206- अगर तुम वाक़ेअन बुर्दबार नहीं भी हो तो बुर्दबारी का इज़हार करो के बहुत कम ऐसा होता है के कोई किसी क़ौम की शबाहत इख़्तेयार करे और उनमें से न हो जाए।
207- जो अपने नफ़्स का हिसाब करता रहता है वहीं फ़ायदे में रहता है और जो ग़ाफ़िल हो जाता है वहीं ख़सारे में रहता है। ख़ौफ़े ख़ुदा रखने वाला अज़ाब से महफ़ूज़ रहता है और इबरत हासिल करने वाला साहबे बसीरत होता है, बसीरत वाला फ़हीम होता है और फ़हीम ही आमिल हो जाता है।
208- यह दुनिया मुंहज़ोरी दिखाने के बाद एक दिन हमारी तरफ़ बहरहाल झुकेगी जिस तरह काटने वाली ऊंटनी को अपने बच्चे पर रहम आ जाता है इसके बाद आपने इस आयते करीमा की तिलावत फ़रमाई - ‘‘हम चाहते हैं के इन बन्दों पर एहसान करें जिन्हें रूए ज़मीन में कमज़ोर बना दिया है और उन्हें पेशवा क़रार दें और ज़मीन का वारिस बना दें।
(((यह एक हक़ीक़त है के किसी भी ज़ालिम में अगर अदना इन्सानियत पाई जाती है तो उसे एक दिन मज़लूम की मज़लूमियत का बहरहाल एहसास पैदा हो जाता है और उसके हाल पर मेहरबानी का इरादा करने लगता है चाहे हालात और मसालेह उसे इस मेहरबानी को मन्ज़िले अमल तक लाने से रोक दें, दुनिया कोई ऐसी जल्लाद व ज़ालिम नहीं है जिसे दूसरे को हटाकर अपनी जगह बनाने का ख़याल हो लेहाज़ा एक न एक दिन मज़लूम पर रहम करना है और ज़ालिमों को मन्ज़रे तारीख़ से हटाकर मज़लूमों को कुर्सीए रियासत पर बैठाना है यही मन्शाए इलाही है और यही वादाए क़ुरानी है जिसके खि़लाफ़ का कोई इमकान नहीं पाया जाता है)))
209- अल्लाह से डरो उस शख़्स की तरह जिसने दुनिया छोड़कर दामन समेट लिया हो और दामन समेट कर कोशिश में लग गया हो, अच्छाइयों के लिये वक़्फ़ए मोहलत में तेज़ी के साथ चल पड़ा हो और ख़तरों के पेशे नज़र तेज़ क़दम बढ़ा दिया हो और अपनी क़रारगाह, अपने आमाल के नतीजे और अपने अन्जामकार पर नज़र रखी हो।
(((यह उस अम्र की तरफ़ इशारा है के तक़वा किसी ज़बानी जमाख़र्च का नाम है और न लिबास व ग़िज़ा की सादगी से इबारत है, तक़वा एक इन्तेहाई मन्ज़िले दुश्वार है जहां इन्सान को मुख़्तलिफ़ मराहेल से गुज़रना पड़ता है, पहले दुनिया को ख़ैरबाद कहना होता है, इसके बाद दामने अमल को समेट कर शुरू करना होता है और अच्छाइयों की तरफ़ तेज़ क़दम बढ़ाना पड़ते हैं, अपने अन्जामकार और नतीजए अमल पर निगाह रखना होती है और ख़तरात के दिफ़ाअ का इन्तेज़ाम करना पड़ता है, यह सारे मराहेल तै हो जाएं तो इन्सान मुत्तक़ी और परहेज़गार कहे जाने के क़ाबिल होता है।)))
210-सख़ावत इज़्ज़त व आबरू की निगेहबान है और बुर्दबारी अहमक़ के मुंह का तस्मा है, माफ़ी कामयाबी की ज़कात है और भूल जाना ग़द्दारी करने वाले का बदल है और मशविरा करना ऐने हिदायत है, जिसने अपनी राय ही पर एतमाद कर लिया उसने अपने को ख़तरे में डाल दिया। सब्र हवादिस का मुक़ाबला करता है और बेक़रारी ज़माने की मददगार साबित होती है। बेहतरीन दौलतमन्दी तमन्नाओं का तर्क कर देना है। कितनी ही ग़ुलाम अक़्लें हैं जो रूसा की ख़्वाहिशात के नीचे दबी हुई हैं, तजुर्बात को महफ़ूज़ रखना तौफ़ीक़ की एक क़िस्म है और मोहब्बत एक इक्तेसाबी क़राबत है और ख़बरदार किसी रन्जीदा हो जाने वाले पर एतमाद न करना।
(((इस कलमए हिकमत में मौलाए कायनात (अ0) ने तेरह मुख़्तलिफ़ नसीहतों का ज़िक्र फ़रमाया है और इनमें हर नसीहत इन्सानी ज़िन्दगी का बेहतरीन जौहर है, काश इन्सान इसके एक-एक फ़िक़रे पर ग़ौर करे और ज़िन्दगी की तजुर्बागाह में इस्तेमाल करे तो उसे अन्दाज़ा होगा के एक मुकम्मल ज़िन्दगी गुज़ारने का ज़ाबेता क्या होता है और इन्सार किस तरह दुनिया व आख़ेरत के ख़ैर को हासिल कर लेता है।)))
211-इन्सान का ख़ुदपसन्दी में मुब्तिला हो जाना ख़ुद अपनी अक़्ल से हसद करना है।
212- आँखों के ख़स व ख़ाशाक और रन्जो अलम पर चश्मपोशी करो हमेशा ख़ुश रहोगे।
(((हक़ीक़ते अम्र यह है के दुनिया के हर ज़ुल्म का एक इलाज और दुनिया की हर मुसीबत का एक तोड़ है जिसका नाम है सब्र व तहम्मुल, इन्सान सिर्फ़ यह एक जौहर पैदा कर ले तो बड़ी से बड़ी मुसीबत का मुक़ाबला कर सकता है और किसी मरहले पर परेशान नहीं हो सकता है, रंजीदा व ग़मज़दा ही रहते हैं जिनके पास यह जौहर नहीं होता है और ख़ुशहाल व मुतमईन वही रहते हैं जिनके पास यह जौहर होता है और वह उसे इस्तेमाल करना भी जानते हैं)))
213- जिस दरख़्त की लकड़ी नर्म हो उसकी शाख़ें घनी होती हैं (लेहाज़ा इन्सान को नर्म दिल होना चाहिये)।
(((कितना हसीन तजुर्बए हयात है जिससे एक देहाती इन्सान भी इस्तेफ़ादा कर सकता है के अगर परवरदिगार ने दरख़्तों में यह कमाल रखा है के जिन दरख़्तों की शाख़ों को घना बनाया है उनकी लकड़ी को नर्म बना दिया है तो इन्सान को भी इस हक़ीक़त से इबरत हासिल करनी चाहिये के अगर अपने एतराफ़ मुख़लेसीन का मजमा देखना चाहता है और अपने को बेसाया दरख़्त नहीं बनाना चाहता है तो अपनी तबीयत को नर्म बना दे ताके इसके सहारे लोग इसके गिर्द जमा हो जाएं और इसकी शख़्िसयत एक घनेरे दरख़्त की हो जाए।)))
214-मुख़ालेफ़त सही राय को भी बरबाद कर देती है।
215- जो मन्सब पा लेता है वह दस्त दराज़ी करने लगता है।
((( किस क़द्र अफ़सोस की बात है के इन्सान परवरदिगार की नेमतों का शुक्रिया अदा करने के बजाए कुफ्ऱाने नेमत पर उतर आता है और उसके दिये हुए इक़्तेदार को दस्तदराज़ी में इस्तेमाल करने लगता है हालांके शराफ़त व इन्सानियत का तक़ाज़ा यही था के जिस तरह उसने साहबे क़ुदरत व क़ूवत होने के बाद इसके हाल पर रहम किया है इसी तरह इक़्तेदार पाने के बाद यह दूसरों के हाल पर रहम करे।)))
216-लोगों के जौहर हालात के इन्क़ेलाब में पहचाने जाते हैं।
217- दोस्त का हसद करना मोहब्बत की कमज़ोरी है।
218- अक़्लों की तबाही की बेश्तर मन्ज़िलें हिर्स व तमअ की बिजलियों के नीचे हैं।
((( हिर्स व तमअ की चमक-दमक बाज़ औक़ात अक़्ल की निगाहों को भी खै़रा कर देती है और इन्सान नेक व बद के इम्तियाज़ से महरूम हो जाता है, लेहाज़ा दानिशमन्दी का तक़ाज़ा यही है के अपने को हिर्स व तमअ से दूर रखे और ज़िन्दगी का हर क़दम अक़्ल के ज़ेरे साया उठाए ताके किसी मरहले पर तबाह व बरबाद न होने पाए।)))
219- यह कोई इन्साफ़ नहीं है के सिर्फ़ ज़न व गुमान के एतमाद पर फ़ैसला कर दिया जाए।
220- रोज़े क़यामत के लिये बदतरीन ज़ादे सफ़र बन्दगाने ख़ुदा पर ज़ुल्म है।
221- करीम के बेहतरीन आमाल में जानकर अन्जान बन जाना है।
222- जिसे हया ने अपना लिबास ओढ़ा दिया उसके ऐब को कोई नहीं देख सकता है।
223- ज़्यादा ख़ामोशी हैबत का सबब बनती है और इन्साफ़ से दोस्तों में इज़ाफ़ा होता है, फ़ज़्ल व करम से क़द्र व मन्ज़िलत बलन्द होती है और तवाज़ोअ से नेमत मुकम्मल होती है दूसरों का बोझ उठाने से सरदारी हासिल होती है और इन्साफ़ पसन्द किरदार से दुश्मन पर ग़लबा हासिल किया जाता है, अहमक़ के मुक़ाबले में बुर्दबारी के मुज़ाहेरे से अन्सार व आवान में इज़ाफ़ा होता है।
(((इस नसीहत में भी ज़िन्दगी के सात मसाएल की तरफ़ इशारा किया गया है और यह बताया गया है के इन्सान एक कामयाब ज़िन्दगी किस तरह गुज़ार सकता है और उसे इस दुनिया में बाइज़्ज़त ज़िन्दगी के लिये किन उसूल व क़वानीन को इख़्तेयार करना चाहिये।)))
224- हैरत की बात है के हसद करने वाले जिस्मों की सलामती पर हसद क्यों नहीं करते हैं (दौलतमन्द की दौलत से हसद होता है और मज़दूर की सेहत से हसद नहीं होता है हालांके यह उससे बड़ी नेमत है)।
225- लालची हमेशा ज़िल्लत की क़ैद में गिरफ़्तार रहता है।
(((लालच में दो तरह की ज़िल्लत का सामना करना पड़ता है, एक तरफ़ इन्सान नफ़सियाती ज़िल्लत का शिकार रहता है के अपने को हक़ीर व फ़क़ीर तसव्वुर करता है और अपनी किसी भी दौलत का एहसास नहीं करता है और दूसरी तरफ़ दूसरे अफ़राद के सामने हिक़ारत व ज़िल्लत का इज़हार करता रहता है के शायद इसी तरह किसी को उसके हाल पर रहम आ जाए और वह उसके मुद्दआ के हुसूल की राह हमवार कर दे।)))
226- आपसे ईमान के बारे में दरयाफ़्त किया गया तो फ़रमाया के ईमान दिल का अक़ीदा, ज़बान का इक़रार और आज़ा व जवारेह के अमल का नाम है।
(((अली (अ0) वालों को इस जुमले को बग़ौर देखना चाहिये के कुल्ले ईमान ने ईमान को अपनी ज़िन्दगी के सांचे में ढाल दिया है के जिस तरह आपकी ज़िन्दगी में इक़रार, तस्दीक़ और अमल के तीनों रूख़ पाए जाते थे वैसे ही आप हर साहेबे ईमान को इसी किरदार का हामिल देखना चाहते हैं और इसके बग़ैर किसी को साहेबे ईमान तस्लीम करने के लिये तैयार नहीं हैं और खुली हुई बात है के बेअमल अगर साहबे ईमान नहीं हो सकता है तो कुल्ले ईमान का शीया और उनका मुख़लिस कैसे हो सकता है।)))
227- जो दुनिया के बारे में रन्जीदा होकर सुबह करे वह दरहक़ीक़त क़ज़ाए इलाही से नाराज़ है और जो सुबह उठते ही किसी नाज़िल होने वाली मुसीबत का शिकवा शुरू कर दे उसने दरहक़ीक़त परवरदिगार की शिकायत की है, जो किसी दौलतमन्द के सामने दौलत की बिना पर झुक जाए उसका दो तिहाई दीन बरबाद हो गया, और जो शख़्स क़ुरान पढ़ने के बावजूद मरकर जहन्नम वासिल हो जाए गोया उसने आयाते इलाही का मज़ाक़ उड़ाया है, जिसका दिल मोहब्बते दुनिया में वारफ़ता हो जाए उसके दिल में यह तीन चीज़ें पेवस्त हो जाती हैं- वह ग़म जो उससे जुदा नहीं होता है, वह लालच जो उसका पीछा नहीं छोड़ती है और वह उम्मीद जिसे कभी हासिल नहीं कर सकता है।
((( इस मक़ाम पर अज़ीम नुकाते ज़िन्दगी की तरफ़ इशारा किया गया है लेहाज़ा इन्सान को उनकी तरफ़ मुतवज्जेह रहना चाहिये और सब्र व शुक्र के साथ ज़िन्दगी गुज़ारनी चाहिये, न शिकवा व फ़रयाद शुरू कर दे और न दौलत की ग़ुलामी पर आमादा हो जाए, क़ुरान पढ़े तो उस पर अमल भी करे और दुनिया में रहे तो उससे होशियार भी रहे)))
228- क़नाअत से बड़ी कोई सल्तनत और हुस्ने एख़लाक़ से बेहतर कोई नेमत नहीं है, आपसे दरयाफ़्त किया गया के ‘‘हम हयाते तय्यबा इनायत करेंगे।’’ इस आयत में हयाते तय्यबा से मुराद क्या है? फ़रमाया क़नाअत।
229- जिसकी तरफ़ रोज़ी का रूख़ हो उसके साथ शरीक हो जाओ के यह दौलतमन्दी पैदा करने का बेहतरीन ज़रिया और ख़ुश नसीबी का बेहतरीन क़रीना है।
230 आयते करीमा ‘‘इन्नल्लाहा या मोरो बिल अद्ल’’ में अद्ल इन्साफ़ है और एहसान फ़ज़्ल व करम।
(((हज़रत उस्मान बिन मज़ऊन का बयान है के मेरे इस्लाम में इस्तेहकाम उस दिन पैदा हुआ जब यह आयते करीमा नाज़िल हुई और मैंने जनाबे अबूतालिब से इस आयत का ज़िक्र किया और उन्होंने फ़रमाया के मेरा फ़रज़न्द मोहम्मद (स0) हमेशा बलन्दतरीन एख़लाक़ की बातें करता है लेहाज़ा इसका इत्तेबाअ और इससे हिदायत हासिल करना तमाम क़ुरैश का फ़रीज़ा है।)))
231- जो आजिज़ हाथ से देता है उसे साहेबे इक़तेराद हाथ से मिलता है।
सय्यद रज़ी- जो शख़्स किसी कारे ख़ैर में मुख़्तसर माल भी ख़र्च करता है परवरदिगार उसकी जज़ा को अज़ीम व कसीर बना देता है, यहाँ दोनों ‘‘यद’’ से मुराद दोनों नेमतें हैं, बन्दे की नेमत को यदे क़सीरा कहा गया है और ख़ुदाई नेमत को यदे तवीला, इसलिये के अल्लाह की नेमतें बन्दों के मुक़ाबले में हज़ारों गुना ज़्यादा होती हैं और वही तमाम नेमतों की असल और सबका मरजअ व मन्शा होती हैं।
232- अपने फ़रज़न्द इमाम हसन (अ0) से फ़रमाया- तुम किसी को जंग की दावत न देना लेकिन जब कोई ललकार दे तो फ़ौरन जवाब दे देना के जंग की दावत देने वाला बाग़ी होता है और बाग़ी बहरहाल हलाक होने वाला है।
(((इस्लाम का तवाज़ुन अमल यही है के जंग में पहल न की जाए और जहां तक मुमकिन हो उसको नज़रअन्दाज़ किया जाए लेकिन इसके बाद अगर दुश्मन जंग की दावत दे दे तो उसे नज़र अन्दाज़ भी न किया जाए के इस तरह उसे इस्लाम की कमज़ोरी का एहसास पैदा हो जाएगा और उसके हौसले बलन्द हो जाएंगे, ज़रूरत इस बात की है के उसे यह महसूस करा दिया जाए के इस्लाम कमज़ोर नहीं है लेकिन पहल करना इसके एख़लाक़ी उसूल व आईन के खि़लाफ़ है)))
233- औरतों की बेहतरीन ख़सलतें जो मर्दों की बदतरीन ख़सलतें शुमार होती हैं, उनमें ग़ुरूर, बुज़दिली और बुख़ल है के औरत अगर मग़रूर होगी तो कोई उस पर क़ाबू न पा सकेगा और अगर बख़ील होगी तो अपने और अपने शौहर के माल की हिफ़ाज़त करेगी और अगर बुज़दिल होगी तो हर पेश आने वाले ख़तरे से ख़ौफ़ज़दा रहेगी।
(((यह तफ़सील इस अम्र की तरफ़ इशारा है के यह तीनों सिफ़ात उन्हीं बलन्दतरीन मक़ासिद की राह में महबूब हैं वरना ज़ाती तौर पर न ग़ुरूर महबूब हो सकता है और न बुख़ल व बुज़दिली। हर सिफ़त अपने मसरफ़ के एतबार से ख़ूबी या ख़राबी पैदा करती है। और औरत के यह सिफ़ात इन्हीं मक़ासिद के एतबार से पसन्दीदा हैं मुतलक़ तौर पर यह सिफ़ात किसी के लिये भी पसन्दीदा नहीं हो सकते हैं)))
234- आपसे गुज़ारिश की गई के मर्दे आक़िल की तौसीफ़ फ़रमाएं तो फ़रमाया के आक़िल वह है जो हर शै को उसकी जगह पर रखता है, अर्ज़ किया गया फिर जाहिल की तारीफ़ क्या है- फ़रमाया यह तो मैं बयान कर चुका।
सय्यद रज़ी - मक़सद यह है के जाहिल वह है जो हर शै को बेमहल रखता है और इसका बयान न करना ही एक तरह का बयान है के वह आक़िल की ज़द है।
235-ख़ुदा की क़सम यह तुम्हारी दुनिया मेंरी नज़र में कोढ़ी के हाथ में सुअर की हड्डी से भी बदतर है।
(((एक तो सुअर जैसे नजिसुलऐन जानवर की हड्डी और वह भी कोढ़ी इन्सान के हाथ में। इससे ज़्यादा नफ़रत अंगेज़ शै दुनिया में क्या हो सकती है। अमीरूल मोमेनीन (अ0) ने इस ताबीर से इस्लाम और अक़्ल दोनों के तालीमात की तरफ़ मुतवज्जो किया है के इस्लाम नजिसुल ऐन से इज्तेनाब की दावत देता है और अक़्ल मोतादी इमराज़ के मरीज़ों से बचने की दावत देती है। ऐसे हालात में अगर कोई शख़्स दुनिया पर टूट पड़े तो न मुसलमान कहे जाने के क़ाबिल है और न साहेबे अक़्ल।)))
236-एक क़ौम सवाब की लालच में इबादत करती है तो यह ताजिरों की इबादत है और एक क़ौम अज़ाब के ख़ौफ़ से इबादत करती है तो यह ग़ुलामों की इबादत है, अस्ल वह क़ौम है जो शुक्रे ख़ुदा के उनवान से उबादत करती है और यही आज़ाद लोगों की इबादत है।
237- औरत सरापा शर है और इसकी सबसे बड़ी बुराई यह है के इसके बग़ैर काम भी नहीं चल सकता है।
(((बाज़ हज़रात का ख़याल है के हज़रत का यह इशारा किसी ‘‘ख़ास औरत’’ की तरफ़ है वरना यह बात क़रीने क़यास नहीं है के औरत की सिन्फ़ को शर क़रार दिया जाए और उसे इस हिक़ारत की नज़र से देखा जाए ‘‘ला बदमिनहा’’ इस रिश्ते की तरफ़ इशारा हो सकता है जिसे तोड़ा नहीं जा सकता है और उनके बग़ैर ज़िन्दगी को अधूरा और नामुकम्मल क़रार दिया गया है।
और अगर बात उमूमी है तो औरत का शर होना उसकी ज़ात या उसके किरदार के नुक़्स की बुनियाद पर नहीं है बल्कि उसकी बुनियाद सिर्फ़ उसकी ज़रूरत और उसके सरापा का इन्सानी जिन्दगी पर तसल्लत है के मर्द किसी वक़्त भी उससे बेनियाज़ नहीं हो सकता है और इस तरह अकसर औक़ात उसके सामने सरे तस्लीम ख़म करने के लिये तैयार हो जाता है। ज़रूरत इस बात की है के मर्द उसके अन्दर पाए जाने वाले जज़्बात और एहसासात की संगीनी की तरफ़ मुतवज्जो रहे और यह ख़याल रखे के इसके जज़्बात व ख़्वाहिशात के आगे सिपरअन्दाख़्ता हो जाना पूरे समाज और मुआशरे की तबाही का बाएस हो सकता है। इसके शर होने में एक हिस्सा उसके जज़्बात व ख़्वाहिशात का है और एक हिस्सा उसके वजूद की ज़रूरत का है जिससे कोई इन्सान बेनियाज़ नहीं हो सकता है और किसी वक़्त भी इसके सामने सिपरअन्दाख़्ता हो सकता है।)))
238- जो शख़्स काहेली और सुस्ती से काम लेता है वह अपने हुक़ूक़ को भी बरबाद कर देता है और जो चुग़लख़ोर की बात मान लेता है वह दोस्तों को भी खो बैठता है।
239- घर में एक पत्भर भी ग़स्बी लगा हो तो वह उसकी बरबादी की ज़मानत है।
सय्यद रज़ी - इस कलाम को रसूले अकरम (स0) से भी नक़्ल किया गया है और यह कोई हैरत अंगेज़ बात नहीं है के दोनों का सरचश्माए इल्म एक ही है।
240- मज़लूम का दिन (क़यामत) ज़ालिम के लिये उस दिन से सख़्ततर होता है जो ज़ालिम का मज़लूम के लिये होता है।
241- अल्लाह से डरते रहो चाहे मुख़्तसर ही क्यों न हो और अपने और उसके दरम्यान पर्दा रखो चाहे बारीक ही क्यों न हो।
242- जब जवाबात की कसरत हो जाती है तो अस्ल बात गुम हो जाती है।
243- अल्लाह का हर नेमत में एक हक़ है जो उसे अदा कर देगा अल्लाह उसकी नेमत को बढ़ा देगा और जो कोताही करेगा वह मौजूदा नेमत को भी ख़तरे में डाल देगा।

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