Tuesday, May 3, 2011

Nahjul Balagha Hindi Khutba 221 नहजुल बलाग़ा हिन्दी ख़ुत्बा 221

221- आपका इरशादे गिरामी
(जिसे  अलहाकोमुत्तकासोर की तिलावत के मौक़े पर इरशाद फ़रमाया)

ज़रा देखो तो इन आबा व अजदाद पर फ़ख़्र करने वालों का  मक़सद किस क़़द्र बईदुज़ अक़्ल है और यह ज़ियारत करने वाले किस क़द्र ग़ाफ़िल हैं और ख़तरा भी किस क़द्र अज़ीम है। यह लोग तमाम इबरतताों से ख़ाली हो गए हैं और इन्होंने मुर्दों को बहुत दूर से ले लिया है और आखि़र यह  क्या अपने आबा व अजदाद के लाशों पर फ़ख़्र कर रहे हैं, या मुर्दो की तादाद से अपनी कसर में इज़ाफ़ कर रहे हैं? या उन जिस्मों को वापस लाना चाहते हैं जो रूहों से ख़ाली हो चुके हैं और हरकत के बाद साकिन हो चुके हैं। उन्हें तो फ़ख़्र के बजाए इबरत का सामान होना चाहिये था और उनको देखकर इन्सान को इज़्ज़त के बजाय ज़िल्लत की मन्ज़िल में उतरना चाहिये था मगर अफ़सोस के इन लोगों ने उन मुर्दों को चुन्धियाई हुई आंखों से देखा है और उनकी तरफ़ से जेहालत के गढ़े में गिर गए हैं।
(((- यह सिलसिलए तफ़ाख़ुर हर दौर में रहा है और आज भी बरक़रार है के इन्सान सामाने इबरत को वजहे फ़ज़ीलत क़रार दे रहा है और इस तरह मुसलसल वादीए ग़फ़लत में मन्ज़िल से दूरतर होता चला जा रहा है। काश उसे इसक़द्र ‘ाऊर होता के आबा व अजदाद की बोसीदा लाशें या क़ब्रें बाइसे इफ़्तेख़ार नहीं हैं। बाइसे इफ़्तेख़ार इन्सान का अपना किरदार है और दर हक़ीक़त किरदार भी इस क़ाबिल नहीं है के उसे सरमायए इफ़्तेख़ार क़रार दिया जा सके। इन्सान के लिये वजहे इफ़्तेख़ार सिर्फ़ एक चीज़ है के इसका मालिक परवरदिगार है जो सारी कायनातत से बालातर है जैसा के मौलाए कायनात ने अपनी मुनाजात में इशारा किया है के ‘‘ख़ुदाया! मेरी इज़्ज़त के लिये यह काफ़ी है के मैं तेरा बन्दा हूँ और मेरे फ़ख़्र के लिये यह काफ़ी है के तू मेरा रब है। अब इसके बाद मेरे लिये किसी ‘ौ की कोई हक़ीक़त नहीं है। सिर्फ़ इल्तिजा यह है के जिस तरह तू मेरी मर्ज़ी का ख़ुदा है, उसी तरह मुझे अपनी मर्ज़ी का बन्दा बना ले।’’-)))

उनके बारे में गिरे पड़े मकानों और ख़ाली घरों से दरयाफ़्त किया जाए तो यही जवाब मिलेगा के लोग गुमराही के आलम में ज़ेरे ज़मीन चले गए (और) तुम जेहालत के आालम में इनके पीछे चले जजा रहे हो, इनकी खोपड़ियों को रौन्द रहे हो और उनके जिस्मों पर इमारतें खड़ी कर रहे हो, जो वह छोड़ गए हैं उसी को चर रहे हो और जो वह बरबाद कर गए हैं उसी में सुकूनत पज़ीद हो। तुम्हारे और उनके दरम्यान के दिन तुम्हारे हाल पर रो रहे हैं और तुम्हारी बरबादी का नौहा पढ़ रहे हैं।
यह हैं तुम्हारी मन्ज़िल पर पहले पहुंच जाने वाले और तुम्हारे चष्मों पर पहले वारिद हो जाने वाले। जिनके लिये इज़्ज़त की मन्ज़िलें थीं, फ़ख़्र व मुबाहात की फ़रावानियां थीं, कुछ सलातीने वक़्त थे और कुछ दूसरे दर्जे के मनसबदार, लेकिन सब बरज़ख़ की गहराइयों में राह पैमाई कर रहे हैं। ज़मीन उनके ऊपर मुसल्लत कर दी गई है। उसने इनका गोश्त खा लिया है और ख़ून पी लिया है अब वह क़ब्र की गहराइयों में ऐसे जमा दिये गये हैं जिनमें नमो नहीं है और ऐसे गुम हो गए हैं के ढूंढे नहीं मिल रहे हैं। न हौलनाक मसाएब का विरूद उन्हें ख़ौफ़ज़दा बना सकता है और न बदले हालात उन्हें रन्जीदा कर सकते हैं। न उन्हें ज़लज़लों की परवाह है और न गरज और कड़क की इत्तेलाअ। ऐसे ग़ायब हुए हैं के इनका इन्तेज़ार नहीं किया जा रहा है और ऐसे हाज़िर हैं के सामने नहीं आते हैं। कल सब यकजा थे अब मुन्तशिर हो गए हैं और सब एक दूसरे के क़रीब थे और अब जुदा हो गए हैं। उनके हालात की बेख़बरी और उनके दयार की ख़ामोशी तूले ज़मान और बोअद मकान की बिना पर नहीं है बल्कि उन्हें मौत का वह जाम पिला दिया गया है जिसने उनकी गाोयाई को गूंगेपन में और उनकी समाअत को बहरेपन में और उनकी हरकात को सुकून में तब्दील कर दिया है। उनकी सरसरी तारीफ़ हो सकती है के जैसे नीन्द में बेख़बर पड़े हों के हमसाये  हैं लेकिन एक-दूसरे से मानूस नहीं हैं और अहबाब हैं लेकिन मुलाक़ात नहीं करते हैं। उनके दरम्यान बाहमी तआरूफ़ के रिश्ते बोसीदा हो गए हैं और बिरादरी के असबाब मुन्क़ता हो गए हैं। अब जब मुजतमा होने के बावजूद अकेले हैं और दोस्त होने के बावजूद एक दूसरे को छोड़े हुए हैं। न किसी रात की सुबह से आश्ना हैं और न किसी सुबह की ‘ााम ही पहचानते हैं। दिन व रात में जिस साअत में भी दुनिया से गए हैं वही उनकी अबदी साअत है।

(((;- यह सूरते  हाल किसी सुकून और इतमीनान का इशारा नहीं है बल्कि दर असल इन्सान की मदहोशी और बदहवासी का इज़हार है के साहबे अक़्ल व ‘ाऊर भी जमादात की ‘ाक्ल इख़्तेयार कर गया है और सूरते हाल यह हो गई है के इधर से जुमला हालात से बेख़बर हो गया है लेकिन उधर के हालात से बेख़बर नहीं है। सुबह व ‘ााम अरवाह के सामने जहन्नुम पेशे नज़र किया जाता है और बेअमल और बदकिरदार इन्सान एक नई मुसीबत से दो चार हो जाता है।
दर हक़ीक़त मौलाए कायनात ने इन फ़ोक़रात में मरने वालों के हालात का ज़िक्र नहीं किया है बल्कि ज़िन्दा अफ़राद को इस सूरते हाल से बचाने का इन्तेज़ाम किया है के इन्सान इस अन्जाम से बाख़बर है और चन्द रोज़ा दुनिया के बजाए अबदी आक़ेबत और आखि़रत का इन्तेज़ाम करे जिससे बहरहाल दो चार हाोना है और इससे फ़रार का कोई इमकान नहीं है।-)))

 और दारे आखि़रत के ख़तरात को उससे ज़्यादा देख लिया है और उनको उससे भी कहीं ज़्यादा हौलनाक पाया जितना उन्हें डर था और वहाँ के आसार को उससे अज़ीम देखा जितना के वह अन्दाज़ा लगाते थे। (मोमिनों और काफ़िरों की) मन्ज़िले इन्तेहा को जाए बाज़गश्त दोज़ख़ व जन्नत तक फेला दिया गया है। वह (काफ़िरों के लिये) हर दरजा ख़ौफ़ से बलन्दतर और (मोमिनों के लिये) हर दर्जा उम्मीद से बालातर है, अगर वह बोल सकते होते जब भी देखी हुई चीज़ों के बयान से उनकी ज़बानें गंग हो जातीं अगरचे उनके निशानात मिट चुके हैं और उनकी ख़बरों का सिलसिला क़ता हो चुका है, लेकिन उन्हें देखती और गोशे अक़्ल वह ख़ुर्द उनकी सुनते हैं (यह लोग अगर बोलने के लाएक़ भी हैं तो उन हालात की तौसीफ़ नहीं कर सकते थे जिनका मुशाहेदा कर लिया है और अपनी आंखों से देख लिया है अब अगर इनके आसार गुम भी हो गए हैं और इनकी ख़बरें मुनक़ता भी हो गई हैं तो इबरत की निगाहें बहरहाल उन्हें देख रही हैं) वह बोले मगर नत्क़ व कलाम के तरीक़े पर नहीं बल्कि उन्होंने ज़बाने हाल से कहा ‘ागुफ्ता चेहर बिगड़ गए, नर्म व नाज़ुक बदन मिट्टी में मिल गए और हमने बोसीदा कफ़न पहन रखा है और क़ब्र की तंगी ने हमें आजिज़ कर दिया है। ख़ौफ़ व दहषत का एक-दूसरे से विरसा पाया है और ख़ामोष मन्ज़िलें वीरान हो चुकी हैं जिस्म के महासिन महो हो चुके हैं और जानी-पहचानी सूरतें भी तबदील हो गई हैं। मन्ज़िले वहशत में क़याम तवील हो गया है और किसी कर्ब से राहत की उम्मीद नहीं है और न किसी तंगी में वुसअत का कोई इमकान है।
अब अगर तुम अपनी अक़्लों से इनकी तस्वीरकशी करो या तुम से ग़ैब के परदे उठा दिये जाएं और तुम उन्हें इस आलम में देख लो के जब कीड़ों की वजह से उनके कान समाअत को खोकर बहरे हो चुके हैं और उनकी आंखें ख़ाक का सुरमा लगाकर अन्दर को धंस चुकी हैं और उनके मुंह में ज़बानें तलाक़त व रवानी दिखाने के बाद पारा-पारा हो चुकी हैं और सीनों में दिल चैकन्ना रहने के बाद बेहरकत हो चुके हैं और उनके एक-एक अज़ो को नई बोसीदगियों ने तबाह करके बद हैसियत बना दिया है और इस हालत में के वह (हर मुसीबत सहने के लिये) बिला मज़ाहमत आमादा हैं। उनकी तरफ़ आफ़तों का रास्ता हमवार कर दिया है, न कोई हाथ है जो उनका बचाव करे और न (बख़्शने वाले) दिल हैं जो बेचैन हो जाएं अगर तुम अपनी अक़्लों में उनका नक़्शा जमाओ या यह के तुम्हारे सामने से उन पर पड़ा हुआ परदा हटा दिया जाए तो अलबत्ता तुम उनके दिलों के अन्दोह और आंखों में पड़े हुए ख़स व ख़ाशाक को देखोगे के उन पर शिद्दत व सख़्ती की ऐसी हालत है के वह बलन्दी नहीं और ऐसी मुसीबत व जान गाही है के हटने का नाम नहीं लेती

उफ! यह ज़मीन कितने अज़ीज़तरीन बदन और हसीनतरीन रंग खा गई (जिनको दौलत व राहत की ग़िज़ा मिल रही थी) जो रंज की घड़ियों में भी मसर्रत अंगेज़ चेहरों से दिल बहलाते थे, अगर कोई मुसीबत उन पर आ पड़ती थी तो अपने ऐष की ताज़गियों पर ललचाए रहने और खेल तफ़रीह पर फ़रेफ़्ता होने की वजह से ख़ुश व क़त्तियों के सहारे ढूंढते थे इसी दौरान में के वह ग़ाफ़िल व मदहोश करने वाली ज़िन्दगी की छांव में दुनिया को देख कर हस रहे थे और दुनिया उन्हें देखकर क़हक़हे लगा रही थी (और अपने लहू व लाब पर फ़रेक़्ता होने की बिना पर तसल्ली का सामान फ़राहम कर लिया करते थे। यह अभी ग़फ़लत में डाल देने वाले ऐश के सरमायए दुनिया को देखकर मुस्करा रहे थे और दुनिया इन्हें देखकर हंस रही थी)

(((-अमीरूल मोमेनीन (अ0) की तस्वीरकशी पर एक लफ़्ज़ के भी इज़ाफ़े की गुन्जाइश नहीं है और अबूतुराब से बेहतर ज़ेरे ज़मीन का नक़्शा कौन खींच सकता है। बात सिर्फ़ यह है के इन्सान इस संगीन सूरते हाल का अन्दाज़ा करे और इस तसवीर को अपनी निगाहे अक़्ल व बसीरत में मुजस्सम बनाए ताके उसे अन्दाज़ा हो के इस दुनिया की हैसियत और औक़ात क्या है और इसका अन्जाम क्या होने वाला है।
हक़ीक़ते अम्र यह है के ज़ेरे ज़मीन ख़ाक का ढेर बन जाने वाले कैसे कैसी ज़िन्दगियां गुज़ार गए हैं और किस किस तरह की राहत पसन्दियों से गुज़र चुके हैं। लेकिन आज मौत उनकी हैसियत का इक़रार करने के लिये तैयार नहीं है और क़ब्र उनके किसी क़िस्म के एहतेराम की क़ाएल नहीं है। यह तो सिर्फ़ ईमान व किरदार या साहबे क़ब्र व बारगाह के जवार का असर है के इन्सान फ़िशारे क़ब्र और बोसीदगी जिस्म से महफ़ूज़ रह जाए। वरना ज़मीन अपने टुकड़े को असल से मिला देने में किसी तरह के तकल्लुफ़ से काम नहीं लेती है।-)))

के अचानक ज़माने ने उन्हें कांटों की तरह रौन्द दिया और उनके सारे ज़ोर तोड़ दिये और क़रीब ही से मौत की नज़रें उन पर पड़ने लगीं और ऐसा ग़म व अन्दोह उन पर तारी हुआ के जिससे वह आशना न थे और ऐसे अन्दरूनी क़लक़ में मुब्तिला हुए के जिससे कभी साबेक़ा न पड़ा था और इस हालत में के वह सेहत से बहुत ज़्यादा मानूस थे, उनमें मर्ज़ की कमज़ोरियां पैदा हो गईं तो अब उन्होंने अपनी चीज़ों की तरफ़ रूजू किया जिनका तबीबों ने उन्हें आदी बना रखा था के गर्मी के ज़ोर को सर्द दवाओं से फ़रो किया जाए और सर्दी को गर्म दवाओं से हटाया जाए। मगर सर्द दवाओं ने गर्मी को बुझाने के बाद और भड़का दिया और गर्म दवाओं ने ठण्डक को हटाने के बजाय इसका जोश और बढ़ा दिया और न इन तबीअतों में मख़लूत होने वाली चीज़ों उनके मिज़ाज नुक़्ताए एतदाल पर आए बल्कि इन चीज़ों ने हर अज़ो माऊफ़ का आज़ार और बढ़ा दिया। यहां तक के वह चारागर सुस्त पड़ गए, तीमारदार (मायूस होकर) सुस्त हो गए और इलाज करने वाले ग़फ़लत बरतने लगे, घरवाले मर्ज़ की हालत बयान करने से आजिज़ आ गए और मिज़ाज पुरसी करने वालों के जवाब से ख़ामोशी इख़्तेयार कर ली और उससे छुपाते हुए इस अन्दोहनाक ख़बर के बारे में इख़्तेलाफ़ राए करने लगे। एक कहने वाला यह कहता था के इसकी हालत जो है सो ज़ाहिर है और एक सेहत व तन्दरूस्ती के पलट आने की उम्मीद दिलाता था और एक इसकी (होने वाली) मौत पर उन्हें सब्र की तलक़ीन करना और इससे पहले गुज़र जाने वालों की मुसीबतें उन्हें याद दिलाता था।
इसी असना में के वह दुनिया से जाने और दोस्तों को छोड़ने के लिये पर तोल रहा था के नागाह गुलूगीर फनदों में से एक ऐसा फनदा उसे लगा के उसके होश व हवास पाशाने व परेशान हो गए और ज़बान की रूतूबत (तरी) ख़ुश्की में तब्दील हो गई और कितने ही मुबहम सवालात थे के जो अब वह जानता था मगर बयान करने से आजिज़ हो गया और कितनी ही दिल सोज़ सदाएं उसके कान से टकराईं के जिनके सुनने से बहरा हो गया और वह आवाज़ या किसी ऐसे बुज़ुर्ग की होती थी जिसका यह बड़ा एहतेराम करता था, या किसी ऐसे ख़ुद रसाल की होती थी जिस पर यह मेहरबान व ‘ाफ़क़ था। मौत की सख़्ितयां इतनी हैं के मुश्किल है के दाएरए बयान में आ सकें या अहले दुनिया की अक़्लों के अन्दाज़े पर पूरी उतर सकें।

(((-हाए वह बेकसी का आलम के न मरने वाला दर्दे दिल की तर्जुमानी कर सकता है और न रह जाने वाले इसके किसी दर्द का इलाज कर सकते हैं। जबके दोनों आमने-सामने ज़िन्दा मौजूद हैं तो इसके बाद किसी से क्या तवक़्क़ो रखी जाए जब एक मौत की आग़ोश में सो जाएगा और दूसरा कन्जे लहद के हालात से भी बेख़बर हो जाएगा और उसे मरने वाले के हालात की भी इत्तेलाअ नहीं होगी।
क्या यह सूरते हाल इस अम्र की दावत नहीं देती है के इन्सान इस दुनिया से इबरत हासिल करे और अहले दुनिया पर एतमाद करने के बजाय अपने ईमान व किरदार और औलियाए इलाही की नुसरत व हिमायत हासिल करने पर तवज्जो दे के इसके अलावा कोई सहारा नहीं है।)))

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